सुंदरी सवैया (छत्तीसगढ़ी) - श्लेष चन्द्राकर
सुंदरी सवैया (1) जिनगी भर गा सुख मा दुख मा छइँया कस जेहर साथ निभाथे। दुविधा रहिथे जब कोन तनी चलना हम ला तब राह दिखाथे।। अउ काम बने जिनगी भर आवय सुग्घर-सुग्घर गोठ बताथे। तँय जान सुवारथ के जग मा सत मा उन मीत बने कहलाथे।। (2) जब गोठ बड़े मन के नइ मानन बादर हा दुख के तब छाथे। पछताथन ताहन अब्बड़ गा सुरता गलती मन हा जब आथे।। बड़खा मन हा बिरथा नइ बोलयँ बात सदा बढ़िया बतलाथे। लइका मन ला बड़खा मन हा सिरतोन हरे सत राह दिखाथे।। (3) घबरा झन जीवन के विपदा मन ले दुख बाद सदा सुख आथे। लड़थे डटके हर संकट ले सत हावय वीर उही कहलाथे।। श्रम के पथ ला नइ छोड़य ओहर मानव खास इहाँ बन जाथे। तन ले मन ले सब कर्म बने करथे अउ सुग्घर गा फल पाथे।। (4) जग प्रेम दया बिन नर्क बरोबर याद रखौ सब गा बन जाही। जग मा जनमे मनखे मन हा सुख चैन कभू चिटको नइ पाही।। जिनगी नइ राहय गा जिनगी बस एक सजा जग मा कहलाही।। जब बैर भुला सब साथ रही तब स्वर्ग बरोबर भूमि सुहाही।। (5) धन-दौलत काम सदा नइ आवय जी व्यवहार कमावव अच्छा। हितवा बन दीन दुखी अउ पीड़ित के कर काम दिखावव अच्छा।। सब लोगन राहय भेद भुला सँघरा परिवेश...