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ग़ज़लें श्लेष चन्द्राकर की

(1) ग़ज़ल तू बेशक चाँद सी है ख़ूबसूरत लगी पर सादगी है ख़ूबसूरत हुआ क्या हो गया बेहद पुराना मेरा घर आज भी है ख़ूबसूरत मुझे लगता है इस सारे जहां में सनम तेरी गली है ख़ूबसूरत हमें तो दर्द औ' ग़म ही मिले हैं कहाँ ये ज़िंदगी है ख़ूबसूरत मुहब्बत का रहे पैग़ाम जिसमें वही तो शायरी है ख़ूबसूरत हमेशा मुस्कुराके सबसे मिलते अदा ये आपकी है ख़ूबसूरत यहाँ है नेक सीरत ‛श्लेष' जिसकी वही तो आदमी है ख़ूबसूरत (2) ग़ज़ल आइना सा दिखा गया कोई जब ख़ताएँ गिना गया कोई क़त्ल इंसानियत का फिर करके खूँ के आँसू रुला गया कोई फिर से हँसते हुए यहाँ यारों देश पर जां लुटा गया कोई खुश था मैं पाक है मेरा दामन मुझपे तोहमत लगा गया कोई सौंप कर काम मुझको फिर अपना ‛श्लेष' का सर दुखा गया कोई (3) ग़ज़ल अब तो मुँह से कभी-कभी निकले रोकना मत अगर हँसी निकले जीस्त से तीरगी मिटाने को बनके उम्मीद रौशनी निकले तोड़ने नफ़रतों की बाँध यहाँ प्रेम की यार इक नदी निकले चल रही कुछ गलत रिवायत हैं जो न बदली कई सदी निकले लोग तब वाह! खूब कहते हैं ‛श्लेष' जब दिल से शायरी निकले (4) ग़ज़ल आज लोगों को हँसाता कौन है ज़िन्दग