ग़ज़लें श्लेष चन्द्राकर की
(1) ग़ज़ल
तू बेशक चाँद सी है ख़ूबसूरत
लगी पर सादगी है ख़ूबसूरत
हुआ क्या हो गया बेहद पुराना
मेरा घर आज भी है ख़ूबसूरत
मुझे लगता है इस सारे जहां में
सनम तेरी गली है ख़ूबसूरत
हमें तो दर्द औ' ग़म ही मिले हैं
कहाँ ये ज़िंदगी है ख़ूबसूरत
मुहब्बत का रहे पैग़ाम जिसमें
वही तो शायरी है ख़ूबसूरत
हमेशा मुस्कुराके सबसे मिलते
अदा ये आपकी है ख़ूबसूरत
यहाँ है नेक सीरत ‛श्लेष' जिसकी
वही तो आदमी है ख़ूबसूरत
(2) ग़ज़ल
आइना सा दिखा गया कोई
जब ख़ताएँ गिना गया कोई
क़त्ल इंसानियत का फिर करके
खूँ के आँसू रुला गया कोई
फिर से हँसते हुए यहाँ यारों
देश पर जां लुटा गया कोई
खुश था मैं पाक है मेरा दामन
मुझपे तोहमत लगा गया कोई
सौंप कर काम मुझको फिर अपना
‛श्लेष' का सर दुखा गया कोई
(3) ग़ज़ल
अब तो मुँह से कभी-कभी निकले
रोकना मत अगर हँसी निकले
जीस्त से तीरगी मिटाने को
बनके उम्मीद रौशनी निकले
तोड़ने नफ़रतों की बाँध यहाँ
प्रेम की यार इक नदी निकले
चल रही कुछ गलत रिवायत हैं
जो न बदली कई सदी निकले
लोग तब वाह! खूब कहते हैं
‛श्लेष' जब दिल से शायरी निकले
(4) ग़ज़ल
आज लोगों को हँसाता कौन है
ज़िन्दगी जीना सिखाता कौन है
बात दौलतमंद की सुनते सभी
न्याय मुफ़लिस को दिलाता कौन है
लोग जख़्मों पर छिडकते है नमक
अब यहाँ मरहम लगाता कौन है
बढ़ गई है इस कदर महँगाई अब
अपने घर मेहमां बुलाता कौन है
जुल्म सहते है यहाँ चुपचाप सब
सर बग़ावत में उठाता कौन है
कोई गिरता तो तमाशा देखते
राह से पत्थर हटाता कौन है
‛श्लेष' अब तारीफ झूठी सब करें
आईना सच का दिखाता कौन है
(5) ग़ज़ल
बेबसी ही बेबसी है आजकल
मुश्किलों में ज़िन्दगी है आजकल
भूल जाते लोग अपने वायदे
छीननी पड़ती खुशी है आजकल
महफ़िलों में कहकहों का ज़ोर है
खो गई संजीदगी है आजकल
स्वार्थ के इस दौर में अब देखिए
भाइयों में दुश्मनी है आजकल
बढ़ गई हैं ‛श्लेष' यूँ मसरूफ़ियत
वक़्त की लगती कमी है आजकल
(6) ग़ज़ल
तय जिसे करना कठिन वो फासला है ज़िन्दगी
एक अंजानी सफ़र का रास्ता है ज़िन्दगी
हमसफ़र कोई मिले काँटों भरी इस राह में
फिर तो चाहत का हसीं इक सिलसिला है ज़िन्दगी
खूब मेहनत कर सुकूं की नींद मिलती है यहाँ
गर न हो जद्दोजहद तो बेमज़ा है ज़िन्दगी
चंद खुशियों के लिए वे तो तरसते उम्रभर
मुफ़लिसों के वास्ते तो इक सज़ा है ज़िन्दगी
चार दिन ही साथ देती और जाती छोड़ है
याद रखना ‛श्लेष' तुम ये, बेवफ़ा है ज़िन्दगी
(7) ग़ज़ल
अब पास जिसके पहले सी दौलत नहीं रही
अब उसकी शह्र में कोई इज़्ज़त नहीं रही
जब से मिला है प्यार तेरा खुश हूँ मैं बहुत
इस ज़िन्दगी से मुझको शिकायत नहीं रही
लगने लगी हसीन वो सीरत की नूर से
सूरत को आइने की जरूरत नहीं रही
भरने लगे हैं नेता सब अपनी तिजोरियां
पहले सी अब यहाँ की सियासत नहीं रही
अच्छाई का है मिलता यहाँ अब तो फल बुरा
दुनिया में ‛श्लेष' अब तो शराफ़त नहीं रही
(8) ग़ज़ल
भूलकर यार ग़म मुस्कुराया करो
अश्क अनमोल है मत बहाया करो
क्यों जताते हो' अहसान तुम हर समय
नेकियाँ कर सदा भूल जाया करो
दिल के' जो पास है आदमी ख़ास है
हाल दिल का उसे तुम बताया करो
मानते हैं तुम्हें जो ख़ुदा की तरह
ख्वाब झूठे उन्हें मत दिखाया करो
जानता कुछ नहीं ‛श्लेष' नादान है
कैसे' रहते यहाँ तुम सिखाया करो
(9) ग़ज़ल
घर है कितनों का भूल जाते हो
आग जंगल में क्यों लगाते हो
इक तरफ हौसला बढ़ाते हो
राह पे खार भी बिछाते हो
दिल से बर्ख़ास्त कर नहीं सकते
देके बस धमकियाँ डराते हो
ख़ौफ़ से हुक्मरां के आगे तुम
बेज़ुबां बन के सर झुकाते हो
जब गलत बात कोई कहता है
उसकी क्यों हाँ में हाँ मिलाते हो
कम नहीं है अवाम की मुश्किल
और क्यों यार, तुम बढ़ाते हो
जीत कैसे मिलेगी श्लेष यहाँ
तुम तो अपनों से मात खाते हो
(10) ग़ज़ल
ग़मों में डूब जाऊँ या कि मुस्काऊँ तुम्हे क्या?
किसी की याद में ये अश्क छलकाऊँ तुम्हे क्या?
मेरे पीछे पड़े रहते हो तुम क्यों अपनी देखो
मेरी दीवार पे मैं कुछ भी चिपकाऊँ तुम्हे क्या?
सुरीला गीत गाते तुम हो तो ये बात अच्छी
मैं गाऊँ राग में या बेसुरा गाऊँ तुम्हे क्या?
बनो तुम रहनुमा मेरी अगर परवाह करते
वगरना राह मैं भटकूं कही जाऊँ तुम्हे क्या?
मसर्रत के मिले हैं श्लेष को ये चार पल तो
मैं झूमूं और नाचूं खूब चिल्लाऊँ तुम्हे क्या?
(11) ग़ज़ल
हमेशा जो हर बात करता खरी है
वो मेरी नज़र में भला आदमी है
समझते हैं तकलीफ़ जो मुफ़लिसों की
यहाँ ऐसे लोगों की भारी कमी है
उजाले उसे हैं चकाचौंध करते
अँधेरों में जिसकी कटी ज़िन्दगी है
इबादत करो तो रखो साफ़ दिल भी
महज़ सर झुकाना कहाँ बंदगी है
नहीं होता इक शे'र तक भी श्लेष अब तो
कई दिन से यारों अजब बेहिसी है
(12) ग़ज़ल
गरीबी के जो मारे हैं
ख़िजाँ के फूल सारे हैं
हमारी ख़्वाहिशों से कम
फ़लक के ये सितारे हैं
कभी आँधी कभी ओला
क़यामत के इशारे हैं
यकीं जिनको नहीं खुद पे
वहीं ढूंढ़े सहारे हैं
पड़े इक बार रिश्तों में
कहाँ भरती दरारे हैं
लड़ें लहरों से यारों जो
उन्हें मिलते किनारे हैं
लुभाते आ रहे बस श्लेष
सियासत के जो नारे हैं
(13) ग़ज़ल
दूर करते क्लेश इंटरनेट से
दे रहें उपदेश इंटरनेट से
आप भी देखे तमाशा ये गजब
चल रहा है देश इंटरनेट से
चिट्ठियाँ आती कहाँ हैं आजकल
भेजते संदेश इंटरनेट से
है जहाँ जाना वहाँ का देख लो
कैसा है परिवेश इंटरनेट से
दूर मीलों रहके भी अब हुक्मरां
देता है आदेश इंटरनेट से
बात करता है प्रिया से प्यार की
आजकल प्राणेश इंटरनेट से
आनलाइन 'श्लेष' सजती महफ़िलें
शे'र करते पेश इंटरनेट से
(14) ग़ज़ल
अपने गुस्से को ताक़ पर रखना
प्यार से कहने का हुनर रखना
है जहां में बिगाड़ने वाले
अपने बच्चों पे अब नज़र रखना
रूह बसती हैं इसमें अपनों की
चिट्ठियों को सहेजकर रखना
चाहते आप पाक साया तो
सहन में नीम का शजर रखना
बेख़बर इश्क़ में न होना श्लेष
दीन दुनिया की भी ख़बर रखना
(15) ग़ज़ल
तबाही मत मचा तूफान बनकर
दिखा अब नेक तू इंसान बनकर
मिलेगा बद्दुआओं के सिवा क्या
तुझे यारां यहाँ शैतान बनकर
नमक खाया है तो करनी पडे़गी
हिफाज़त मुल्क़ की दरबान बनकर
मिलो लोगों से औ' परिचय बढ़ाओ
रहोगे कब तलक अनजान बनकर
उम्मीदें उनकी है गर श्लेष तुझसे
तो जी माँ-बाप का अभिमान बनकर
(16) ग़ज़ल
बात ये सच है मियां इससे कहाँ इनकार है
ज़िन्दगी जो अपनी शर्तों पे जिये ख़ुद्दार है
कम किसी को आंकने की भूल मत करना कभी
सामने वाला भी रखता आधुनिक हथियार है
हो गया है हादसा तो भूल जाना ही सहीह
रातदिन उस बात को तो सोचना बेकार है
फैलती हैं नफ़रतें ख़बरें वो ऐसी छापता
उसको तो हर हाल में बस बेचना अख़बार है
काम करता है वही जिसकी मनाही की गई
‛श्लेष' अपनी आदतों से आज भी लाचार है
(17) ग़ज़ल
आँधियों की तरह आ रहे वायरस
हर तरफ मौत फ़ैला रहे वायरस
हो गई आज लाचार इंसानियत
बाँट कर ख़ौफ इतरा रहे वायरस
क़ैद घर में ही हम हो गए देखिए
क़ह्र दुनियाँ पे यूँ ढा रहे वायरस
क्या ख़ता हो गई ये बताए बिना
क्यों क़्यामत के दिन ला रहे वायरस
दोस्त अहबाब से हो गये दूर हम
बे रहम बन के तड़पा रहे वायरस
बस में इंसान के कुछ नहीं अब रहा
आज श्लेष घर आ रहे वायरस
(18) ग़ज़ल
गहन भाव कुछ तो भरो शे'र में अब
ख़री बात कहते चलो शे'र में अब
किसे वक़्त मिलता है अब सोचने का
सहजता से बातें कहो शे'र में अब
मुहब्बत की बातें बहुत हो चुकी है
ज़माने की बातें करो शे'र में अब
बहुत अपने बारे में तुमने कहा है
गरीबों की पीड़ा रखो शे'र में अब
कही जा चुकी है वही बात कहते
नया श्लेष कुछ तुम पढ़ो शे'र में अब
(19) ग़ज़ल
किया तुमने सनम अच्छा नहीं था
मुझे यूँ छोड़ के जाना नहीं था
झुका था हुस्न के आगे जो तेरे
वो सज़दे में कभी झुकता नहीं था
बिछड़के तुमसे जाना इश्क़ क्या है
किसी की याद में तड़पा नहीं था
बहुत खुश था तुम्हारा साथ पाकर
मेरा दिल जब तलक टूटा नहीं था
छला है श्लेष को अपना बनाकर
मिला परिणाम जो सोचा नहीं था
(20) ग़ज़ल
हक़ में अब फैसला लिया तो है
सूर्य उम्मीद का उगा तो है
है कठिन आसमान को छूना
पर तेरे दिल में हौसला तो है
क्या हुआ गर वो मेरे साथ नहीं
करता मेरे लिए दुआ तो है
वो लगा है सुधारने गलती
हार का कुछ असर हुआ तो है
बोलता सत्य तो सभी चिड़ते
आदमी वो मगर खरा तो है
(21) ग़ज़ल
आपसे प्यार सुब्ह शाम करें
ज़िन्दगी आप उनके नाम करें
ठंड में वास्ते गरीबों के
गर्म कपड़ों का इंतिज़ाम करें
लोग सरहद के जो मुहाफ़िज़ हैं
दिल से उनको सदा सलाम करें
साथ सुख-दुख में जो सदा रहता
उम्र उसपे फ़िदा तमाम करें
राह ईमां की जो यहाँ चलता
उसका जीना सभी हराम करें
चापलूसी हमें नहीं भाती
दूसरा आप कोई काम करें
लोग वो आजकल नहीं मिलते
ज़िन्दगी जो किसी के नाम करें
दिल से देंगे सदा दुआएं वो,
आ बुजुर्गों का एहतराम करें
(22) ग़ज़ल
दिल के अंदर खुशी मचलती है
आपकी बात जब निकलती है
यार, तू दिल में हौसला रखना
एक दिन ग़म की साँझ ढ़लती है
पूछ मत हाल तू दिवाने का
ये ग़नीमत की साँस चलती है
चैन मिलता बहुत है इस दिल को
दर्द की शम्अ जब पिघलती है
‛श्लेष' ये कौन जान पायेगा
दिल में नफ़रत किसी के पलती है
(23) ग़ज़ल
वो गले से लगा गया है मुझे
प्यार करना सिखा गया है मुझे
बोलता हूँ बहुत सियासत पर
चुप रहूँ अब कहा गया है मुझे
हाल अपना नहीं सुना सकता
प्यार से यूँ छला गया है मुझे
गाँव की याद अब नहीं आती
यार, ये शह्र भा गया है मुझे
है मज़ा बस, यहाँ फ़क़ीरी में
वो मसीहा बता गया है मुझे
(24) ग़ज़ल
फिर से दाना वो डाल सकता है
अपना फैला जो जाल सकता है
सुर्खियों में सदा वो रहने को
कोई मुद्दा उछाल सकता है
फायदा ज्ञान का उसे मिलता
आचरण में जो ढाल सकता है
बात समझाइए उसे पूरी
वरना भ्रम कोई पाल सकता है
सामने ‛श्लेष' उसके चुप रहता
बात उसकी जो टाल सकता है
(25) ग़ज़ल
रहता कब एक सा बदल जाता
व़क्त है चाल अपनी चल जाता
सावधानी ज़रा दिखाते तो
हादसा जो हुआ वो टल जाता
बैठ कर गर विवाद निपटाते
कुछ न कुछ रास्ता निकल जाता
फैसला हार जीत का करने
एक सिक्का ही बस उछल जाता
देखने हाल तुम मेरा आती
तो मेरा दिल ज़रा बहल जाता
प्रेम की आँच से मेरे दिल का
दर्द हिमखंड सा पिघल जाता
हाथ कसकर अगर पकड़ लेते
‛श्लेष' गिरता नहीं सँभल जाता
(26) ग़ज़ल
बहुत पैसा बहाया जा रहा है
हमें नाटक दिखाया जा रहा है
सियासत में भुनाने बात छोटी
बड़ा करके बताया जा रहा है
नहीं मालूम जिसको क्या सियासत
उसे सर पे बिठाया जा रहा है
खड़ी करने गगनचुंबी इमारत
गरीबों को हटाया जा रहा है
नया इतिहास लिखने को पुरानी
लिखावट को मिटाया जा रहा है
(27) ग़ज़ल
स्वार्थ में डूबे हुए किरदार अब
कर रहे इंसानियत पर वार अब
हम भला आगे बढ़ेंगे किस तरह
राह में तुमने बिछाए ख़ार अब
हैं नहीं महफूज अब तो बच्चियां
भेड़िये करने लगे हद पार अब
पार करना हो गया मुश्किल सडक
गाड़ियों की बढ़ गई रफ़्तार अब
मुश्किलों में साथ तो देते नहीं
नाम के हैं ‛श्लेष’ रिश्तेदार अब
(28) ग़ज़ल
डर ये लगता है मधुर व्यवहार से
लोग अब तो लूटते हैं प्यार से
इसमें अब छपती नहीं अच्छी खबर
हो गई नफ़रत मुझे अखबार से
एक दिन झुकना पड़ेगा जान लो
लड़ सकोगे कब तलक सरकार से
प्यार से निपटाइए सब उलझनें
खुद का भी नुक़्सान है तकरार से
जो हक़ीक़त है उसे स्वीकार लें
बच नहीं सकते समय की मार से
(29) ग़ज़ल
कौन कहता हैं हमें सम्मान दो
बस हमारे हाल पर तुम ध्यान दो
आज मुश्किल है बहुत जीना यहाँ
हम जिये कैसे यहाँ वो ज्ञान दो
काम मिल जाता हमें होती गुजर
हम कहाँ कहते हमें तुम दान दो
छोड़ कर तो चल दिये मझधार में
ज़िन्दगी का अब हमें वरदान दो
दुश्मनों की साजिशें नाकाम हो
युद्घ का ऐसा हमें सामान दो
(30)
रूठता हूँ तो मनाता है कोई
मुझपे अधिकार जताता है कोई
साथ साये की तरह रहता मेरे
दोस्त सच्चा हूँ बताता है कोई
नींद जब आती नहीं रात में तो
थपकियाँ देके सुलाता है कोई
जो भरोसे के रहे क़ाबिल उसे
बैठने घर पे बुलाता है कोई
प्यार होता है तो होती न ख़बर
चुपके से दिल में समाता है कोई
(31) गजल
समर्पण जहाँ है वहाँ प्यार है |
विषय वासना हो तो' व्यापार है |
रखो भावना तुम सदा त्याग की,
यही प्यार का एक आधार है |
हमें मुश्किलों में नही छोड़ता,
सदा साथ देता वही यार है |
कभी प्यार मिलता नही है जिसे,
लगे ज़िन्दगी ये' उसे भार है |
बिना प्यार के ज़िन्दगी कुछ नही,
अगर प्यार है तो ये' संसार है |
(32)
लोग बस गलतियां गिनाते हैं
पर कहाँ रास्ता दिखाते हैं
हिज्र में अश्क तो बहाते हैं
चार दिन बाद भूल जाते हैं
हम हैं महँगाई से बहुत बेचैन
रोज़ त्यौहार वो मनाते हैं
मुफ़्त में राय तो सभी देते
साथ लेकिन कहाँ निभाते हैं
बात अच्छी कोई बताये तो
लोग उसकी हँसी उड़ाते हैं
(33) ग़ज़ल
किसी को प्यार से यारों हमें छलना नहीं आया
ज़माने तेरी राहों पर हमें चलना नहीं आया
खुदा ने रहमतों से अपनी हमको यूँ नवाज़ा है
हमें ख़ैरात की रोटी पे अब पलना नहीं आया
हमेशा राहे ईमाँ पर सफ़र करते हैं हम यारां
तुम्हारे झूठ के सांचों में अब ढलना नहीं आया
बहाते खूब हैं हम तो पसीना अपने खेतों में
हमें तो हाथ खाली बैठकर मलना नहीं आया
बढ़ाता ‛श्लेष' उसका हौसला जो बढ़ रहा आगे
किसी की कामयाबी पर उसे जलना नहीं आया
(34) ग़ज़ल
और काबिल हमें बनाती हैं
गलतियां तो सबक सिखाती हैं
उम्र अपनी भले छुपाले हम
झुर्रियाँ सत्य बोल जाती हैं
व़क्त आता है तब गुनाहों पर
जिन्दगी फैसलें सुनाती हैं
जीतने के लिए बुराई से
नेकियाँ ही तो काम आती हैं
रोज़ अभ्यास करते रहने से
दूर कठिनाइयां हो जाती हैं
चैन से बैठने नहीं देती
जिन्दगी रोज़ आज़माती हैं
(35) ग़ज़ल
तय वही करता समय आराम का
मानता फ़रमान जो हुक्काम का
ज्ञान रखते आप है माना बहुत
ज्ञान जो बाँटा नहीं किस काम का
चाँद सूरज रोज़ देते हाजिरी
सीख इनसे सोच मत आराम का
पाठशाला में लगाया था कभी
पेड़ वो फलने लगा है आम का
मुश्किलों में छोड़ जाता साथ जो
दोस्त रह जाता है वो बस नाम का
कौन पूछेगा उसे यारों यहाँ
बन गया है ‛श्लेष' सूरज शाम का
(36) ग़ज़ल
रूठता हूँ तो मनाता है कोई
मुझपे अधिकार जताता है कोई
साथ साये की तरह रहता मेरे
दोस्त सच्चा हूँ बताता है कोई
नींद जब आती नहीं रात में तो
थपकियाँ देके सुलाता है कोई
मतलबी दौर में ये बात बड़ी
प्यार में साथ निभाता है कोई
देख बढती महँगाई में यहाँ
घर अपना कैसे चलाता है कोई
प्यार होता है तो होती न ख़बर
चुपके से दिल में समाता है कोई
देखने ‛श्लेष' ये कम ही मिलता
हक़ में आवाज उठाता है कोई
(37) ग़ज़ल
आपकी नज़रें इनायत हो गयी
ज़िंदगी ये ख़ूबसूरत हो गयी
ज़ब्त उसकी जब ज़मानत हो गयी
बंद उसकी तब सियासत हो गयी
हिज्र से नाशाद था ये दिल मेरा
तुम मिले तो खुश तबीयत हो गयी
बिन दिये होता नहीं है काम कुछ
अब यहाँ की रस्म रिश्वत हो गयी
चुप नहीं वो बैठ सकता है कभी
बोलने की जिसकी आदत हो गयी
हाथ अब बढ़ते नहीं इम्दाद को
गुम जहां से अब शराफ़त हो गयी
मुफ़्त में तज्वीज़ देना जुर्म अब
‛श्लेष' तुमसे ये हिमाकत हो गयी
(38) ग़ज़ल
जिन्हें आता नहीं बातें बनाना
कहाँ उनके लिए है ये जमाना
ये बच्चें भूलते अब जा रहे हैं
बड़ों हों, रूबरू तो सर झुकाना
हुई बाजार में हर चीज महँगी
कहाँ आसान है अब घर चलाना
सहो अब जुर्म तुम चुपचाप रहकर
बहुत महँगा पड़ेगा सर उठाना
अना को छोड़कर तुम ‛श्लेष' सीखो
अज़ीयत में किसी के काम आना
(39) ग़ज़ल
यहाँ जिसका जिगर फ़ौलाद होगा
भला वो भी कभी नाशाद होगा
वतन के वास्ते कुछ तो करो अब
कसम खाई थी' तुमने याद होगा
बिछाता जाल जनता को फँसाने
सियासत का बड़ा सय्याद होगा
बहारां बनके' आओ ज़ीस्त में तुम
ये' उजड़ा घर मे'रा आबाद होगा
वो' तनहा श्लेष अब रहने लगा है
मुहब्बत में हुआ बर्बाद होगा
(40) ग़ज़ल
सितम हर सिम्त ढ़ाया जा रहा है
जमीं पे जब्र बढ़ता जा रहा है
भरोसे के कोई क़ाबिल नहीं अब
बदलता ये जमाना जा रहा है
सितम बच्चों पे भी ढ़ाने लगा अब
कि ये इंसान गिरता जा रहा है
हुआ इंसान से नाराज सूरज
तपिश अपनी बढ़ाता जा रहा है
यहाँ हर हादिसे को यार अब तो
सियासत में उछाला जा रहा है
हवस में हो गया इंसान अंधा
बिना सोचे ही भागा जा रहा है
मिलेगा ‛श्लेष' अब इंसाफ़ कैसे
हक़ीक़त को छुपाया जा रहा है
(41) ग़ज़ल
गिरे गर तो खुद ही सँभलते रहेंगे
है माहौल वैसा ही ढ़लते रहेंगे
रहेंगे न पीछे कभी ज़िन्दगी में
अगर वक़्त के साथ चलते रहेंगे
रखेंगे नई बात जब तक नहीं हम
पुराने ही मुद्दे उछलते रहेंगे
न होंगे खड़े गर मुख़ालिफ़ तो यारों
वो अरमां हमारे कुचलते रहेंगे
जो किरदार देगी हमें श्लेष दुनिया
उसी के मुताबिक़ बदलते रहेंगे
(42) ग़ज़ल
पाठ गीता का पढ़ाओ कृष्ण जी
फिर जमीं पर लौट आओ कृष्ण जी
नारियों पर जुल्म ढ़ाते दुष्ट जन
लाज उनकी तुम बचाओ कृष्ण जी
कौरवों से आज का अर्जुन लड़े
हौसला उसका बढ़ाओ कृष्ण जी
चाल शकुनी की तरह जो चल रहे
आके उनको फिर हराओ कृष्ण जी
कंश दुर्योधन अभी भी हैं यहाँ
दंभ को उनके मिटाओ कृष्ण जी
(43) ग़ज़ल
रो रही है आज हिन्दी
थी कभी सरताज हिन्दी
आज अपनों से बहुत है
मुल्क में नाराज हिन्दी
फिर अदब के आसमां पे
अब भरे परवाज़ हिन्दी
यूँ करो कुछ हर जुबां की
बन सके आवाज़ हिन्दी
दिल में सबके श्लेष फिर से
कब करेगी राज हिन्दी
(44) ग़ज़ल
दबी चिंगारियां सुलगा रहे हैं
सियासत वे यहाँ चमका रहे हैं
नसीहत रास ना आई तो यारों
हमें मिलने से अब कतरा रहे हैं
ज़ुबां मत खोल दे मुंसिफ़ के आगे
गवाहों को डरा-धमका रहे हैं
सुधरने की कभी कोशिश न की पर
ज़माने को गलत बतला रहे हैं
यहाँ इंसानियत के लोग दुश्मन
हदों से अब गुज़रते जा रहे हैं
हटाकर एक-दो पाबंदियों को
किया एहसान यूँ जतला रहे हैं
पड़ोसी की बताकर ‛श्लेष’ साज़िश
यहाँ अपनों को अब लड़वा रहे हैं
(45) ग़ज़ल
होगा फिर रूबरू मात से
आगे बढ़ मत तू औक़ात से
आये नौबत नहीं जंग की
बात बिगड़ी बना बात से
जीतना है तुझे गर यहाँ
हार मत मान हालात से
चैन से सो नही पायेगा
डर गया तू अगर रात से
किसको अपना कहे श्लेष अब
खेलते लोग ज़ज्बात से
(46) ग़ज़ल
देश का बदला बहुत परिवेश बापू
खो गए हैं आपके संदेश बापू
तल्ख़ लहजे में यहाँ सब बात करते
प्यार से आते नहीं हैं पेश बापू
आम जन के जो गले की फाँस बनते
जारी होते बेतुके आदेश बापू
भावना अपनत्व की खोने लगी है
होते घर-घर में बहुत अब क्लेश बापू
शांति का संदेश फैलाते जगत में
कम दिखाई देते हैं दरवेश बापू
(47) ग़ज़ल
अजनबी की तरह यूँ न व्यवहार कर
अपनों से टूटकर यार तू प्यार कर
अब तेरी बात में फिर नहीं आयेंगे
जो दिखाया हमें स्वप्न साकार कर
तू मिले ना मिले ये अलग बात है
इश्क़ में खुश हुए हम तो दिल हार कर
छोड़ हथियार तू हाथ में फूल रख
क्या मिलेगा बता अपनों को मार कर
श्लेष कब तक मिलायेगा तू हाँ में हाँ
जो मुनासिब नहीं बात इंकार कर
(48) ग़ज़ल
धर्म के नाम पर बंद उत्पात हो
सिर्फ इंसानियत की यहाँ बात हो
लोग मिलने लगे दुश्मनी भूलकर
उस हसीं दौर की अब शुरूआत हो
अपना किरदार दुनिया में ऐसा रहे
लोग दें मान जब भी मुलाकात हो
ऐ खुदा है गुज़ारिश यही आपसे
घर किसी का ढ़हे यूँ न बरसात हो
श्लेष अच्छा रहेगा जहां के लिए
धर्म इक ही रहे और इक जात हो
(49) ग़ज़ल
क्या हक़ीक़त है ये जानते कम से कम
पास जाकर अगर देखते कम से कम /1/
बोलने तुम लगे दुश्मनों की ज़ुबां
मुल्क़ के वास्ते सोचते कम से कम /2/
यार सच्चे मेरे तुम जो होते अगर
बात मेरी नहीं टालते कम से कम /3/
दूसरों पर लगाते हो इल्ज़ाम तुम
दिल में अपने कभी झांकते कम से कम /4/
सब पे करते हो तुम मेह्रबानी बहुत
श्लेष का हाथ भी थामते कम से कम /5/
(50) ग़ज़ल
फालतू बातों में मत गँवाया करो
वक़्त है कीमती यूँ न ज़ाया करो
ज़ुल्म सहना किसी पाप से कम नहीं
ज़ुल्म के सामने सर उठाया करो
जब मनाता तुम्हें प्यार से है कोई
भूल शिकवे गिले मुस्कुराया करो
लोग कमजोर दिल का तुम्हें बोलते
अश्क हर बात पे मत बहाया करो
जो वतन के लिए जान देते लुटा
उनके सम्मान में सर झुकाया करो
काम आते सदा जो बुरे दौर में
वक़्त पे साथ उनका निभाया करो
ख़ौफ से गर खुदा के तुम्हें बचना है
मुफ़लिसों को कभी मत सताया करो
ग़म भुलाकर लगें लोग हँसने यहाँ
काम ऐसा कभी कर दिखाया करो
इश्क़ करते हो गर श्लेष उससे बहुत
उसके तुम नाज़ नखरे उठाया करो
(51) ग़ज़ल
ढ़ूंढ़ता हूँ वो आश्ना कोई
जो बता दे तेरा पता कोई
ज़िन्दगी लगती है सज़ा कोई
देता है अपना जब दगा कोई
जब ग़लत रास्ते पे हम चलते
काम आती नहीं दुआ कोई
किसको फ़ुर्सत ये जानने की अब
इश्क़ में हो गया फ़ना कोई
अक्स तेरा मुझे दिखे जिसमें
पास रख दे वो आइना कोई
जाना खुद को तो इस जहां भर में
मुझसे बढ़कर नहीं बुरा कोई
चोट लगती है श्लेष इस दिल को
कहता है जब बुरा-भला कोई
(52) ग़ज़ल
सबको देती बदी ज़लालत है
नेकियों से ही मिलती शुहरत है
उसके चेहरे की बदली रंगत है
लगता है बढ़ गई मुसीबत है
वो तो नेता है मत यकीं करना
बोलना झूठ उसकी फ़ितरत है
खुद पे इतना गुमान मत करना
चार दिन साथ देती दौलत है
बचने सरकार ने वबा से अब
घर में रहने की दी हिदायत है
निर्दयी वायरस है कोरोना
बच गए इससे तो ये क़िस्मत है
होशियारी बघारने वाला
श्लेष कब मानता नसीहत है
(53) ग़ज़ल
कोशिशों में गर कोई उससे कमी रह जायेगी
ज़िन्दगी से दूर उसकी हर खुशी रह जायेगी //१
ज़िन्दगी में इश्क़ के ही तो बदौलत है ज़िया
इसके बिन तो दोस्तो बस तीरगी रह जायेगी //२
दे गया है फिर दगा बरसात का मौसम उसे
क्या समंदर से मिले बिन वो नदी रह जायेगी //३
रोशनी को बाँटनें वाला भी कोई चाहिए
चाँद के बिन नाम की बस चाँदनी रह जायेगी //४
फैसला हक़ में सुनायेगा नहीं मुंसिफ़ तेरे
बात कोई श्लेष तुझसे अनकही रह जायेगी //५
(54) ग़ज़ल
देखो तो इस जहां में हैं दिलदार कम नहीं
इंसानियत के आज परस्तार कम नहीं //1
आते मदद को लोग मुसीबत में सामने
मतलब के दौर में भी मददगार कम नहीं //2
कोशिश तो मुस्कुराने की करते हैं हम बहुत
पर क्या करें हयात में आज़ार कम नहीं //3
दिल का हमारे ज़ख़्म भरे भी तो किस तरह
इसमें नमक छिड़कने को अग़्यार कम नहीं //4
चलना है ‘श्लेष' तुमको सदाक़त की राह पे
ईमान बेचना हो तो बाज़ार कम नहीं //5
(55) ग़ज़ल
बेवफा तुझसे मुहब्बत है मुझे
भूल पे अपनी नदामत है मुझे //१
वक़्त पे इंसाफ जो देती नहीं
उस अदालत से शिकायत है मुझे //२
मुफ़लिसों के काम आये जो यहाँ
ऐसे लोगो से मुहब्बत है मुझे //३
तुम शिकायत का पिटारा खोल दो
आजकल सुनने की फुर्सत है मुझे //४
जी रहा हूँ दर्द सहकर ज़िन्दगी
इसमें तो हासिल महारत है मुझे //५
करता हूँ मैं मुश्किलों का सामना
फिर भी सच कहने की आदत है मुझे //६
सेंकते हैं जो सियासी रोटियाँ
उन सभी से श्लेष नफ़रत है मुझे //७
(49) ग़ज़ल
क्या हक़ीक़त है ये जानते कम से कम
पास जाकर अगर देखते कम से कम /1/
बोलने तुम लगे दुश्मनों की ज़ुबां
मुल्क़ के वास्ते सोचते कम से कम /2/
यार सच्चे मेरे तुम जो होते अगर
बात मेरी नहीं टालते कम से कम /3/
दूसरों पर लगाते हो इल्ज़ाम तुम
दिल में अपने कभी झांकते कम से कम /4/
सब पे करते हो तुम मेह्रबानी बहुत
श्लेष का हाथ भी थामते कम से कम /5/
(50) ग़ज़ल
फालतू बातों में मत गँवाया करो
वक़्त है कीमती यूँ न ज़ाया करो
ज़ुल्म सहना किसी पाप से कम नहीं
ज़ुल्म के सामने सर उठाया करो
जब मनाता तुम्हें प्यार से है कोई
भूल शिकवे गिले मुस्कुराया करो
लोग कमजोर दिल का तुम्हें बोलते
अश्क हर बात पे मत बहाया करो
जो वतन के लिए जान देते लुटा
उनके सम्मान में सर झुकाया करो
काम आते सदा जो बुरे दौर में
वक़्त पे साथ उनका निभाया करो
ख़ौफ से गर खुदा के तुम्हें बचना है
मुफ़लिसों को कभी मत सताया करो
ग़म भुलाकर लगें लोग हँसने यहाँ
काम ऐसा कभी कर दिखाया करो
इश्क़ करते हो गर श्लेष उससे बहुत
उसके तुम नाज़ नखरे उठाया करो
(51) ग़ज़ल
ढ़ूंढ़ता हूँ वो आश्ना कोई
जो बता दे तेरा पता कोई
ज़िन्दगी लगती है सज़ा कोई
देता है अपना जब दगा कोई
जब ग़लत रास्ते पे हम चलते
काम आती नहीं दुआ कोई
किसको फ़ुर्सत ये जानने की अब
इश्क़ में हो गया फ़ना कोई
अक्स तेरा मुझे दिखे जिसमें
पास रख दे वो आइना कोई
जाना खुद को तो इस जहां भर में
मुझसे बढ़कर नहीं बुरा कोई
चोट लगती है श्लेष इस दिल को
कहता है जब बुरा-भला कोई
(52) ग़ज़ल
सबको देती बदी ज़लालत है
नेकियों से ही मिलती शुहरत है
उसके चेहरे की बदली रंगत है
लगता है बढ़ गई मुसीबत है
वो तो नेता है मत यकीं करना
बोलना झूठ उसकी फ़ितरत है
खुद पे इतना गुमान मत करना
चार दिन साथ देती दौलत है
बचने सरकार ने वबा से अब
घर में रहने की दी हिदायत है
निर्दयी वायरस है कोरोना
बच गए इससे तो ये क़िस्मत है
होशियारी बघारने वाला
श्लेष कब मानता नसीहत है
(53) ग़ज़ल
कोशिशों में गर कोई उससे कमी रह जायेगी
ज़िन्दगी से दूर उसकी हर खुशी रह जायेगी //१
ज़िन्दगी में इश्क़ के ही तो बदौलत है ज़िया
इसके बिन तो दोस्तो बस तीरगी रह जायेगी //२
दे गया है फिर दगा बरसात का मौसम उसे
क्या समंदर से मिले बिन वो नदी रह जायेगी //३
रोशनी को बाँटनें वाला भी कोई चाहिए
चाँद के बिन नाम की बस चाँदनी रह जायेगी //४
फैसला हक़ में सुनायेगा नहीं मुंसिफ़ तेरे
बात कोई श्लेष तुझसे अनकही रह जायेगी //५
(54) ग़ज़ल
देखो तो इस जहां में हैं दिलदार कम नहीं
इंसानियत के आज परस्तार कम नहीं //1
आते मदद को लोग मुसीबत में सामने
मतलब के दौर में भी मददगार कम नहीं //2
कोशिश तो मुस्कुराने की करते हैं हम बहुत
पर क्या करें हयात में आज़ार कम नहीं //3
दिल का हमारे ज़ख़्म भरे भी तो किस तरह
इसमें नमक छिड़कने को अग़्यार कम नहीं //4
चलना है ‘श्लेष' तुमको सदाक़त की राह पे
ईमान बेचना हो तो बाज़ार कम नहीं //5
(55) ग़ज़ल
बेवफा तुझसे मुहब्बत है मुझे
भूल पे अपनी नदामत है मुझे //१
वक़्त पे इंसाफ जो देती नहीं
उस अदालत से शिकायत है मुझे //२
मुफ़लिसों के काम आये जो यहाँ
ऐसे लोगो से मुहब्बत है मुझे //३
तुम शिकायत का पिटारा खोल दो
आजकल सुनने की फुर्सत है मुझे //४
जी रहा हूँ दर्द सहकर ज़िन्दगी
इसमें तो हासिल महारत है मुझे //५
करता हूँ मैं मुश्किलों का सामना
फिर भी सच कहने की आदत है मुझे //६
सेंकते हैं जो सियासी रोटियाँ
उन सभी से श्लेष नफ़रत है मुझे //७
(49) ग़ज़ल
क्या हक़ीक़त है ये जानते कम से कम
पास जाकर अगर देखते कम से कम /1/
बोलने तुम लगे दुश्मनों की ज़ुबां
मुल्क़ के वास्ते सोचते कम से कम /2/
यार सच्चे मेरे तुम जो होते अगर
बात मेरी नहीं टालते कम से कम /3/
दूसरों पर लगाते हो इल्ज़ाम तुम
दिल में अपने कभी झांकते कम से कम /4/
सब पे करते हो तुम मेह्रबानी बहुत
श्लेष का हाथ भी थामते कम से कम /5/
(50) ग़ज़ल
फालतू बातों में मत गँवाया करो
वक़्त है कीमती यूँ न ज़ाया करो
ज़ुल्म सहना किसी पाप से कम नहीं
ज़ुल्म के सामने सर उठाया करो
जब मनाता तुम्हें प्यार से है कोई
भूल शिकवे गिले मुस्कुराया करो
लोग कमजोर दिल का तुम्हें बोलते
अश्क हर बात पे मत बहाया करो
जो वतन के लिए जान देते लुटा
उनके सम्मान में सर झुकाया करो
काम आते सदा जो बुरे दौर में
वक़्त पे साथ उनका निभाया करो
ख़ौफ से गर खुदा के तुम्हें बचना है
मुफ़लिसों को कभी मत सताया करो
ग़म भुलाकर लगें लोग हँसने यहाँ
काम ऐसा कभी कर दिखाया करो
इश्क़ करते हो गर श्लेष उससे बहुत
उसके तुम नाज़ नखरे उठाया करो
(51) ग़ज़ल
ढ़ूंढ़ता हूँ वो आश्ना कोई
जो बता दे तेरा पता कोई
ज़िन्दगी लगती है सज़ा कोई
देता है अपना जब दगा कोई
जब ग़लत रास्ते पे हम चलते
काम आती नहीं दुआ कोई
किसको फ़ुर्सत ये जानने की अब
इश्क़ में हो गया फ़ना कोई
अक्स तेरा मुझे दिखे जिसमें
पास रख दे वो आइना कोई
जाना खुद को तो इस जहां भर में
मुझसे बढ़कर नहीं बुरा कोई
चोट लगती है श्लेष इस दिल को
कहता है जब बुरा-भला कोई
(52) ग़ज़ल
सबको देती बदी ज़लालत है
नेकियों से ही मिलती शुहरत है
उसके चेहरे की बदली रंगत है
लगता है बढ़ गई मुसीबत है
वो तो नेता है मत यकीं करना
बोलना झूठ उसकी फ़ितरत है
खुद पे इतना गुमान मत करना
चार दिन साथ देती दौलत है
बचने सरकार ने वबा से अब
घर में रहने की दी हिदायत है
निर्दयी वायरस है कोरोना
बच गए इससे तो ये क़िस्मत है
होशियारी बघारने वाला
श्लेष कब मानता नसीहत है
(53) ग़ज़ल
कोशिशों में गर कोई उससे कमी रह जायेगी
ज़िन्दगी से दूर उसकी हर खुशी रह जायेगी //१
ज़िन्दगी में इश्क़ के ही तो बदौलत है ज़िया
इसके बिन तो दोस्तो बस तीरगी रह जायेगी //२
दे गया है फिर दगा बरसात का मौसम उसे
क्या समंदर से मिले बिन वो नदी रह जायेगी //३
रोशनी को बाँटनें वाला भी कोई चाहिए
चाँद के बिन नाम की बस चाँदनी रह जायेगी //४
फैसला हक़ में सुनायेगा नहीं मुंसिफ़ तेरे
बात कोई श्लेष तुझसे अनकही रह जायेगी //५
(54) ग़ज़ल
देखो तो इस जहां में हैं दिलदार कम नहीं
इंसानियत के आज परस्तार कम नहीं //1
आते मदद को लोग मुसीबत में सामने
मतलब के दौर में भी मददगार कम नहीं //2
कोशिश तो मुस्कुराने की करते हैं हम बहुत
पर क्या करें हयात में आज़ार कम नहीं //3
दिल का हमारे ज़ख़्म भरे भी तो किस तरह
इसमें नमक छिड़कने को अग़्यार कम नहीं //4
चलना है ‘श्लेष' तुमको सदाक़त की राह पे
ईमान बेचना हो तो बाज़ार कम नहीं //5
(55) ग़ज़ल
बेवफा तुझसे मुहब्बत है मुझे
भूल पे अपनी नदामत है मुझे //१
वक़्त पे इंसाफ जो देती नहीं
उस अदालत से शिकायत है मुझे //२
मुफ़लिसों के काम आये जो यहाँ
ऐसे लोगो से मुहब्बत है मुझे //३
तुम शिकायत का पिटारा खोल दो
आजकल सुनने की फुर्सत है मुझे //४
जी रहा हूँ दर्द सहकर ज़िन्दगी
इसमें तो हासिल महारत है मुझे //५
करता हूँ मैं मुश्किलों का सामना
फिर भी सच कहने की आदत है मुझे //६
सेंकते हैं जो सियासी रोटियाँ
उन सभी से श्लेष नफ़रत है मुझे //७
(56) ग़ज़ल
आग दिल में जनाब रखता हूँ
हौसला बेहिसाब रखता हूँ
रोज़ चेहरा बदलना है पड़ता
साथ अपने नक़ाब रखता हूँ
जो निगाहों से आपने पूछा
मैं तो उसका जवाब रखता हूँ
हाल क्या पूछ्ते हो मेरा
ग़म की मैं तो किताब रखता हूँ
मैं तो पैग़ाम प्यार का देने
हाथ में इक गुलाब रखता हूँ
गिनता रहता मैं हिज़्र के लम्हे
हर घड़ी का हिसाब रखता हूँ
(57) ग़ज़ल
विसाल की है बहुत बेक़रारी आँखों में
तुम्हारी याद में शब है गुज़ारी आंखों में
बिना बताये ही करती है ये हमें घायल
छुपा के रक्खी है तुमने कटारी आँखों में
भरा है प्यार तुम्हारे लिए बहुत यारां
कभी तो झाँक के देखो हमारी आँखों में
हसीं फ़िज़ा में हमारा भी एक घर होगा
सजाया हमने ये सपना कुँवारी आँखों में
तुम्हें यहाँ जो कोई एक टक अगर देखे
रहेगा डूब के वो तो तुम्हारी आँखों में
(58) ग़ज़ल
नफ़रत भुलाके इश्क़ से सरकार देखते
सब लोग देते तुमको बहुत प्यार देखते
लगती तुम्हारी नाँव सहल पार देखते
किस ओर गर हवा की है रफ़्तार देखते
होता न राज झूठ का ये बोलता हूँ मैं
परदा हटाके आँख से सच यार देखते
क्या हो रहा जहान में चलता पता तुम्हें
ऐ दोस्त रोज़ सुब्ह का अख़बार देखते
अपनी अना को छोड़ के करते मुकाबला
ऐ ‘श्लेष' ऐसे फिर न कभी हार देखते
(59) ग़ज़ल
बनके इक शैतान यारां खो नहीं पहचान को
तू अगर इंसान है तो मार मत इंसान को /१/
यूँ मुसीबत की घड़ी में हौसला मत हारना
रास्ता कुछ तो खुलेगा याद कर भगवान को /२/
हर हसीं पे चाहता है ये तो होने को फिदा
बस में क्यों रहता नहीं समझा दिल-ए-नादान को /३/
नेक बनकर ज़िन्दगी गर तुम बिताना चाहते
जो छुपा अंदर तुम्हारे मार उस शैतान को /४/
बात उनसे तू किया कर लौटकर दफ़्तर से घर
बूढ़े माता और पिता के तोड़ मत अरमान को /५/
बात ये ऐ श्लेष अब दुनिया में बेहद आम है
बेचते हैं लोग लालच में यहाँ ईमान को /६/
(60) ग़ज़ल
वीरानगी रहे तो क्या जलवा दिखाये गुल
उजड़ा रहे चमन तो क्यूँ खुशबू लुटाये गुल
जीना ये जिंदगी हमें कुछ यूँ सिखाये गुल
काँटों के बीच खिल के भी जब मुस्कुराये गुल
उस शख़्स के नसीब में काँटें ही हैं फ़क़त
मतलब परस्ती में यहाँ जिसने खिलाये गुल
नफ़रत की आँधियों से भला किसका है हुआ
मौसम हो खुशगवार तभी खिलखिलाये गुल
एहसान उसका श्लेष चुकाएंगे किस तरह
कुर्बान होके प्यार के जिसने खिलाये गुल
(61) ग़ज़ल
बैठा फिर घात में शिकारी है
देखना आज किसकी बारी है
नाम पर दर्ज फौज़दारी है
तो सियासत में लाभकारी है
ऐ खुदा मत किसी को देना यूँ
ज़िन्दगी मैंने जो गुज़ारी है
गर परिंदे नज़र न आये तो
सूनी लगती बड़ी अटारी है
दिल नहीं तोड़ता किसी का वो
होता जो प्रेम का पुजारी है
लाखों में एक शख़्स होता वो
देता जो ब्याज बिन उधारी है
(63) ग़ज़ल
आजकल गुमसुम बहुत रहता हूँ मैं
कैसे कह दूँ दोस्तो अच्छा हूँ मैं
पूछता कोई नहीं कैसा हूँ मैं
इस जहां में किस कदर तन्हा हूँ मैं
हक़ बयानी की मिली ऐसी सज़ा
आजकल हर शख़्स को चुभता हूँ मैं
चापलूसी की नहीं यारो कभी
इसलिए आगे न बढ़ पाया हूँ मैं
मिल न पाई श्लेष मुझको वह खुशी
उम्र भर जिसके लिए तरसा हूँ मैं
(64) ग़ज़ल
वक़्त ज़ाया कर न यूँ तकरार में
ज़िन्दगी का है मजा बस प्यार में
कोई करता है यकीं यलगार में
तो किसी को ताकत ए गुफ़्तार में
हर किसे के बस में ये होता नहीं
फ़न दिखाना डूबकर किरदार में
हर कोई सहता यहाँ दुख दर्द है
ग़मजदा इक तू नहीं संसार में
खेल में जब अपने बच्चों से मिले
तो बहुत होती खुशी उस हार में
आयगा बदलाव यारां एक दिन
है भरोसा ग़र कलम की धार में
(65) ग़ज़ल
फ़र्क़ कुछ पड़ता नहीं है नाम से
मिलती इज़्ज़त है जहां में काम से /१/
जुर्म करता है ज़माने में वही
जो न वाक़िफ़ होता है अंजाम से /२/
रात आँखों में कटेगी फिर मेरी
याद तेरी आ रही है शाम से /३/
खूब करते लोग मेहनत इसलिए
कल कटेगी ज़िन्दगी आराम से /४/
चोर डाकू और दुष्कर्मी यहांँ
घूमते होकर बरी इल्ज़ाम से /५/
(66) ग़ज़ल
हाल अपना जब सुनाया देर तक
मैंने उसको था रुलाया देर तक /१/
साथ मेरे वो रहा था दोस्तो
बनके मेरा नेक साया देर तक /२/
मुल्क पे क़ुर्बान होने वाले ने
साथ लश्कर का निभाया देर तक /३/
याद नानी की उन्हें आने लगी
दुश्मनों को जब छकाया देर तक /४/
राज़ तेरा खोल दूँगा जब कहा
वो न मेरे पास आया देर तक /५/
यादकर बचपन की सब शैतानियाँ
श्लेष बैठा मुस्कुराया देर तक /६/
(67) ग़ज़ल
याद बचपन की पुरानी और है
दास्तां तुमको सुनानी और है
सुनके पूरी यार तुम जाना कहीं
कुछ बची मेरी कहानी और है
वो दिखावा करता है यारो बहुत
काम उसका खानदानी और है
प्यार की बारिश हुई थी कल तभी
दिल के दरिया की रवानी और है
कल हमें जिसपर बहुत ही था गुमां
वो नहीं ये राजधानी और है
पास मेरे और लाती है तुम्हें
दर्द की ये तर्जुमानी और है
देख लेना श्लेष आकर तुम कभी
गाँव की नदियों का पानी और है
(68) ग़ज़ल
दिलों से दूरियाँ हमको मिटाने की ज़रूरत है
वतन को खुशनुमा फिर से बनाने की ज़रूरत है
बिगाड़ा है जहां का खुशनुमा माहौल नफ़रत ने
मुहब्बत की नदी फिर से बहाने की ज़रूरत है
बुजुर्गो ने सँवारा था वतन को खून दे अपना
हमें मेयार इसकी अब बढ़ाने की ज़रूरत है
वबा से लड़़ रहे बेख़ौफ़ हो जाँबाज़ अपने जब
हमें भी फ़र्ज़ अपना अब निभाने की ज़रूरत है
सभी जीते यहाँ खुद के लिए क्यों ज़िन्दगी है ‘श्लेष'
ज़माने के लिए जी कर दिखाने की ज़रूरत है
(69) ग़ज़ल
कहके अपना कोई तो बुलाये मुझे
अपने दिल के जहां में बसाये मुझे
ऐसा भी ज़िंदगी में बशर हो कोई
रूठ जाऊँ कभी तो मनाये मुझे
दोस्त होगा वही सच में मेरा यहाँ
आइना सच का जो भी दिखाये मुझे
उसको ढ़ूँढू कहाँ जाके मैं आज जो
नेक राहों पे चलना सिखाये मुझे
उसको करना मुक्कमल ग़ज़ल है अगर
क़ाफ़िया हूँ वो आखिर निभाये मुझे
(70) ग़ज़ल
अंगारों पर मैंने चलना सीखा है
हर मुश्किल में यार सँभलना सीखा है
राह नहीं मैं आसानी से भटकूँगा
साथ सभी को लेकर चलना सीखा है
चाल मुख़ालिफ़ चाहे जितनी चल लो तुम
मैंने हर साँचे में ढलना सीखा है
पत्थर दिल हूँ ऐसा तुम क्यों कहते हो
दिल ने मेरे यार पिघलना सीखा है
श्लेष दुआएँ लेकर चलता अपनों की
तब मुश्किल हालात बदलना सीखा है
(71) ग़ज़ल
ज़ीस्त में तुम ये फ़लसफ़ा रखना
लब पे सबके लिए दुआ रखना
जो भी इंसानियत के दुश्मन हैं
ऐसे लोगों से फ़ासला रखना
गर वबा से निजात पाना है
उससे लड़ने का हौसला रखना
सर के ऊपर हो एक अपनी छत
ख़्वाब आँखों में वो सजा रखना
ख़त्म नफरत किसी से करना हो
तो मरासिम का सिलसिला रखना
जो गिनाए तुम्हारी कमियों को
सामने ऐसा आइना रखना
तीरगी दूर हो ज़हालत की
श्लेष वो शम्अ तू जला रखना
श्लेष चन्द्राकर, महासमुंद (छ.ग.)
मो.नं. 9926744445
ग़ज़ल
फिर से आये बहार का मौसम
मेरे जीवन में प्यार का मौसम
ज़ीस्त जद्दोजहद में गुजरी है
अब तो दे दे क़रार का मौसम
जीत तकदीर में नहीं शायद
सिर्फ़ देखा है हार का मौसम
मुल्क में जब चुनाव होता है
रहता है इश्तिहार का मौसम
मुफ़लिसों के नसीब में लिक्खा
दोस्त किसने उधार का मौसम
करता बेचैन इश्क़ वालों को
इश्क़ में इंतज़ार का मौसम
श्लेष अब देखने यहाँ मिलता
रात दिन बस ग़ुबार का मौसम
Comments
Post a Comment