मनहरण घनाक्षरी (छत्तीसगढ़ी) - श्लेष चन्द्राकर

 मनहरण घनाक्षरी

(१)
सरसों हा ममहाथे, मनवा ला बड़ भाथे,
बन-बन गूँज जथे, कोयली के तान गा।
जुन्ना पाना झर जाथे, नवा पाना तब आथे,
फेर रुखराई मन, लगथें जवान गा।
नीक-नीक देख फूल, लोग जाथें सब भूल,
बड़ भाथे भुँइया के, नवा परिधान गा।
लोग-बाग गाथें गीत, लुटाथें मया पिरीत,
करथें रितुराजा के, सबो गुणगान गा।

(२)
देश के गद्दार सबो, भुँइया के भार सबो,
ढूँढ़-ढूँढ़ येमन ला, सजा दिलवाव जी।
भरोसा ला टोर देथें, बम-वम फोड़ देथें
लोग मन ला मार के, देथें बड़ घाव जी।
देश के खाथें येमन, पर गुन गाथें येमन,
इखँर चिन्हारी अब, इहाँ ले मिटाव जी।
एहसान भूल जाथें, हाथ बैरी ले मिलाथें,
नमक हराम हरै, देश‌ ले भगाव जी।

(३)
काम बने करबे गा, सत बर लड़बे गा,
होही जग मा तहाँन, तोर बड़ा नाम हा।
झूठा झन बनबे जी, पाप झन करबे जी,
बड़ा बुरा होवत हे, इखँर अंजाम हा।
ठगनी मोह माया हे, अउ नश्वर काया हे।
तज दे अभिमान ला, याद रथे काम हा।
खुद ला झन देखबे, सबके बने सोचबे,
तभे तोर करहीं गा, भला प्रभु राम हा।

(४)
लड़ौ नहीं भाई-भाई, इही मा हवै भलाई,
बने रहू तब रही, सुखी परिवार हा।
बात मोरो मान लेवा, बैर भाव छोड़ देवा,
प्यार देहू इहाँ तभे, मिलही गा प्यार हा।
एक साथ रहू सदा, राम-राम कहू सदा,
एक दिन टूट जाथे, दंभ के दीवार हा।
मेल-जोल रखे रहू, गोठ कड़वा ना कहू,
तभे तो रिश्ता म परे, भरही दरार हा।

(५)
स्वच्छता ला अपना के, चंगा रहू इहाँ सदा,
गंदगी फैलाके झन, रोग ला बलाव जी।
कूड़ादान मा ही डारौ, कचरा ला बुहार‌के,
भुँइया मा ऐती-तेती, झन बगराव जी।
दिखय नहीं गंदगी, एक्को कनी कहूँ कोती,
गाँव-गली ला अपन, सुग्घर बनाव जी।
तुहँर गाँव ला अब, देखने वाला मन हा,
बोग बाय रह जाये, अइसे सजाव जी।

~ श्लेष चन्द्राकर,
खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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