छत्तीसगढ़ी छप्पय छंद
(1)
लोकगीत के हाल, बुरा हे अब्बड़ संगी।
इखँर गवैया आज, सहत हें धन के तंगी।।
बाँस गीत के मीत, घटत हे आज गवैया।
पँडवानी के राज, कोन हे फेर लनैया।।
कलाकार मन राज के, खोजत हाबयँ काम जी।
नाम भले मिल जात हे, मिलत कहाँ हे दाम जी।।
(2)
तासक दफडा नाल, दमउ खन्जेरी डफली।
हमर राज के शान, रहिस सब बाजा पहली।।
माँदर झांझ मृदंग, मोहरी रूंझु चिकारा।
दिखथे कमती आज, नँगाड़ा अउ इकतारा।।
करें गरब छत्तीसगढ़, वो सब आज नँदात हे।
तम्बूरा ताशा असन, बाजा कोन बजात हे।।
(3)
योगासन ले देह, बने रहिथे गा जानव।
रोज बिहनिया योग, करे बर सबझन ठानव।।
योग करे ले रोज, धरे सब रोग मिटाही।
येला लाँघन पेट, बिहनिया करना चाही।।
उमर बाढ़थे योग ले, करव लगाके ध्यान जी।
रहिथे बने दिमाग हा, स्वस्थ रथे इंसान जी।।
(4)
हमर देश के योग, खोज हे ऋषि मुनि मन के।
अंतस मा ये राज, करत हावय सबझन के।।
रोग करत हे दूर, योग हा ममहावत हे।
योगा के संसार, आज बड़ गुण गावत हे।।
भारत के परदेस मा, देखव मान बढ़ात हे।
इँहे जनम ले योग हा, जग मा सबला भात हे।।
(5)
केंसर अउ मधुमेह, बिमारी मा हितकारी।
सबो रोग मा योग, पड़त हावय गा भारी।
मनखे मन ला आज, बने रखथे योगासन।
तभे देत हे जान, बढ़ावा येला शासन।।
योगा सबके बीच मा, होगे हे मशहूर जी।
करथे कतको रोग ला, येहा जड़ ले दूर जी।
(6)
कहिथे सही सियान, गोठ ओकर गा मानो।
अनुभव के वो खान, मोल बड़खा के जानो।
देथे बने सलाह, बढ़े बर आघू सबला।
दो ओला सम्मान, अपन देथव जो रब ला।
सच्चा गोठ सियान के, ये जग मा बगराव जी।
उखँर बताये राह मा, चलके सबो दिखाव जी।।
(7)
गरमी हावय तेज, पछीना बड़ बोहाथे।
घेरी बेरी आज, प्यास मा गला सुखाथे।।
हवा चलत हे तात, निकलना मुसकुल घर ले।
खुसरे रहिथें लोग, घरे मा लू के डर ले।।
हवय जरूरी काम तब, घर ले बाहिर जाव जी।
गरम हवा अउ घाम ले, तन ला अपन बचाव जी।।
(8)
खचवा-डबरा पाट, डहर ला बना बरोबर।
जिहाँ जरूरी होय, उहाँ चलवा बुलडोजर।।
काँटा-खूँटी फेंक, बना रद्दा ला सुग्घर।
गाँव-गली अउ खोर, दिखे सब उज्जर उज्जर।।
बने सबो ला लागथे, साफ-सफाई जान जी।
येला अपनाना हवय, मन मा तँय हा ठान जी।।
(9)
बने धान दुबराज, सबो ला येहा भाथे।
येला बोके देख, खेत अब्बड़ ममहाथे।।
बिजहा येकर लान, खेत मा अपन लगावव।
खाद दवाई छींच, फसल ला बने बढ़ावव।।
जब बाढ़ जथे ये धान तब, बाली दिखथे खास जी।
अउ चाँउर हा दुबराज के, आथे सबला रास जी।।
(10)
झिल्ली होथे खीक, सबो ला आप बतावव।
बउरे बर दे छोड़, गोठ अइसे समझावव।।
होवय गा नइ नष्ट, जलाये ले बस्साथे।
खाके गरुवा गाय, प्रान ला अपन गँवाथे।।
सब मनखे मन ला अब कहो, पर्यावरण बचाव जी।
बड़ पहुचाथे नुकसान ये, झिल्ली झन अपनाव जी।।
(11)
झिल्ली हरय खराब, जान के बनथव भोला।
जावव नइ बाजार, हाथ मा धरके झोला।।
देथव झिल्ली फेंक, खीक दिखथे हर कोना।
करथे ये नुकसान, बाद मा पड़ही रोना।।
सुग्घर धरती मा अपन, झिल्ली झन बगराव जी।
छोडव येकर मोह ला, पर्यावरण बचाव जी।।
(12)
माटी पूत खुमान, अबड़ गा सुरता आही।
उंखर कस संगीत, कोन गा अब दे पाही।।
दिहिन नवा पहिचान, गीत गौरी-गौरा ला।
देवी के जसगीत, ददरिया अउ करमा ला।।
लोक कला ला छोड़ के, सरग सिधारिन साव जी।
उंखर सपना सोच सब, पूरा करथन आव जी।।
(13)
चल दिन हमला छोड़, कला के सच्चा साधक।
तबला पेटी ढोल, बाँसुरी के ओ वादक।।
रचिन अमर संगीत, कला के मान बढ़ाइन।
कतको उंखर खोज, गवैया नाम कमाइन।।
पोठ लोक संगीत हो, सपना रिहिस खुमान के।
आज जरूरत हे अबड़, उंखर कस इंसान के।।
(14)
पानी पीके प्यास, सबोझन अपन बुझाथन।
येला राखव साफ, इही मा सबो नहाथन।।
पानी मा ही रोज, खीक कपड़ा ला धोथन।
बोथन बखरी खेत, उहू मा घला पलोथन।।
करथन जल उपयोग सब, रोज बिहनिया शाम जी।
बिरथा झन बोहान दो, अब्बड़ आथे काम जी।।
विषय - सावन के महीना
(15)
सुख दे बर हर साल, महीना सावन आथे।
बरसा होथे घोर, सबो ला जे बड़ भाथे।
बुझथे भू के प्यास, खेत मन मा जल भरथे।
खुश हो अबड़ किसान, काम खेती के करथे।।
तरिया बाँधा भर जथे, गिरथे पानी घात गा।
पबरित सावन मास हा, देथे ये सौगात गा।
(16)
सावन के सम्मार, हरय दिन शिव-शंकर के।
कर लौ पूजा-पाठ, अघोरी अभ्यंकर के।।
मिलथे गा बड़ पुन्न, ध्यान ला प्रभु के धर लौ।
भक्ति रसा मा बूढ़, सफल जिनगी ला कर लौ।।
सावन सम्मारी हरय, सत मा दिन बड़ खास जी।
सबके भोलेनाथ हा, पूरा करथे आस जी।
(17)
सावन मा जी घात, इंद्र हा जल बरसाथे।
बोके खेत किसान, हरेली परब मनाथे।।
ये दिन हमर किसान, काम बड़ सुग्घर करथे।
खेती के औजार, बैल के पूजा करथे।।
भाई बहिनी के मया, आशा अउ विश्वास के।
रक्षाबंधन के परब, खास हरे ये मास के।।
छंदकार - श्लेष चन्द्राकर,
पता - खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
Comments
Post a Comment