छत्तीसगढ़ी बरवै छंद

काटन झन दो बिरथा, पेड़ बचाव।
हराभरा धरती ला, फेर बनाव।।

रुख-राई झन काटव, समझो बात।
वन घटही तब होही, कम बरसात।।

झन उपयोग करव गा, पालीथीन।
हो जाही पहिली कस, हमर जमीन।।

झिल्ली हा कर देथे, नाली जाम।
कचरा डब्बा येकर, सही मुकाम।।

मिरगा भलुवा हाथी, खोजत नीर।
आवत हवय गाँव के, नँदिया तीर।।

रुख-राई के पत्ती, गे हे सूख।
मरत हवय सब वन के, प्राणी भूख।।

दिन-दिन सूखत हावय, जल के स्त्रोत।
बूँद-बूँद पानी बर, मनखे रोत।।

कम होगे हे संगी, नल के धार।
पीये के पानी बर, मचथे रार।।

हैण्डपम्प के होगे, खस्ताहाल।
जम्मो सूखत हावय, नँदिया ताल।।

मोटर के धुँगिया हे, जहर समान।
येकर सेती जाथे, कतको जान।।

धुर्रे हा फैलाथे, कतको रोग।
मुहू बाँध के निकले, घर ले लोग।।

लगथे अब्बड़ गरमी, दिन अउ रैन।
मानसून जब आही, मिलही चैन।।

तात हवा चलथे गा, दिन अउ रात।
सबझन सोचत हावय, हो बरसात।।

रानी दुर्गावती पर बरवै छंद...

हमर देश के बेटी, रिहिन महान।
राजा कीरति सिंह के, वो संतान।।

आठे के दिन जनमिन, कन्या नेक।
रिहिन ददा-दाई के, लइका एक।।

ओकर माँ-बाप रखिन, दुर्गा नाम।
करिन राज के हित मा, जे हा काम।।

दुर्गावती साहसी, सुता सुशील।
विफल करिन बैरी के, चाल कुटील।।

उँखर ददा दाई हा, करिन विवाह।
नाव रहिस हे पति के, दलपत शाह।

जिनगी मा दुर्गा के, आइस मोड़।
चार बरस मा ही पति, चल दिन छोड़।।

रानी के पूत रहिस, गा सुकुमार।
राजपाठ के मिलगे, ओला भार।।

दुर्गावती बनाइन, मठ अउ ताल।
अपन राज ला राखिन, ओ खुशहाल।।

किला हड़पना चाहिस, कतको बार।
बाजबहादुर के गिस, खाली वार।।

अकबर हमला बोलिस, कतको बार।
दुर्गा विफल करिस हे, ओकर वार।।

दुर्गावती करिन हे, अइसे काज।
बनिस गोंडवाना हा, सुग्घर राज।।

दुर्गावती रिहिन हे, बड़ गुणवान।
हमर देश के नारी, चतुर सुजान।।

अपन गोठ के राखिन, दुर्गा मान।
अपन गला खुद काटिन, दिन बलिदान।।

चाल चलिस बैरी मन, उँखर विरुद्ध।
खूब लड़िन दुर्गा तब, जीतिन युद्ध।।

विषय - पिता

रखे ददा लइका ला, बड़ खुशहाल।
विपदा मा ओकर बर, बनथे ढ़ाल।।

बेटा बेटी बर हे, मया समान।
ददा सबो लइका के, रखथे ध्यान।।

ददा देवता कस हे, दे सम्मान।
उनखर झन करबे गा, तँय अपमान।।

ददा बरोबर जग मा, नइ इंसान।
सेवा करहू उनखर, देहू मान।।

ददा सदा देथे गा, सत के ज्ञान।
अपन गुरू कस ओला, तँय हा मान।।

करथे अपन ददा के, जे हिनमान।
ओ मानव के रुप मा, हे शैतान।।

कबीर दास...

गोठ करय जन हित के, संत कबीर।
दीन दुखी मन के जी, समझय पीर।।

सबो रहव जुरमिल के, दिन हे ज्ञान।
बोलय सुग्घर बानी, संत महान।।

मिल जाही माटी मा, हमर शरीर।
अपन गरब ला छोड़व, कहय कबीर।।

अनपढ़ रहिके दिन हे, जग ला ज्ञान।
एक जुलाहा बन गे, संत महान।।

आडंबर के अब्बड़, करिन विरोध।
संत कराइन जग ला, सत के बोध।।

बोलय जे कबीर हा, सत हे आज।
अबड़ दिखावा करथे, हमर समाज।।

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