छत्तीसगढ़ी कुण्डलिया - श्लेष चन्द्राकर
(1)
कहिथे गुरु जे बात ला, सुनव लगाके ध्यान।
जिनगी मा होहू सफल, गोठ सियानी मान।।
गोठ सियानी मान, इही मा सार छुपे हे।
जेमा शिक्षा संग, उखँर गा प्यार छुपे हे।।
आघू जाये शिष्य, सदा गुरु सोचत रहिथे।
बने बताथे बात, कहाँ बिरथा ओ कहिथे।।
(2)
वन के संरक्षण करव, पानी घला बचाव।
बिगड़त हे पर्यावरण, जुरमिल सबो सजाव।।
जुरमिल सबो सजाव, फेर लावव हरियाली।
होही तब बरसात, दौड़ही नदियाँ नाली।।
कहत श्लेष कविराय, भला होही सबझन के।
होवत हे बर्बाद, करव रक्षा अब वन के।।
(3)
कीमत अब्बड़ साग के, मनखे काला खाय।
गरमी के बाजार मा, बने साग नइ आय।।
बने साग नइ आय, भराथे आधा झोला।।
का ले के घर जाँव, समझ नइ आवय मोला।।
घर मा रहिथे मीत, बरी अउ खुला गनीमत।
छूवत हे आकाश, हरा सब्जी के कीमत।।
(4)
भाषा हमर विशेष हे, करथें सबो पसंद।
छत्तीसगढ़ी मा लिखव, कहिनी कविता छंद।।
कहिनी कविता छंद, लिखव गा सुग्घर येमा।
परंपरा के गोठ, समाहित राहय जेमा।।
कहत श्लेष कविराय, इही सबके अभिलाषा।
करते रहय विकास, हमर महतारी भाषा।।
(5)
नल हा कमती देत हे, पानी देखव आज।
बूँद-बूँद बर देख लव, तरसत हवय समाज।।
तरसत हवय समाज, पियें के पानी बर गा।
गर्मी अब्बड़ तेज, दिखावत हवय असर गा।।
कहत श्लेष कविराय, सिरावत हे भू-जल हा।
कइसे देही बोल, बने पानी अब नल हा।।
(6)
आथे बचपन के अबड़, गरमी छुट्टी याद।
दिन-भर खेलन गाँव मा, घूमन गा आजाद।।
घूमन गा आजाद, करन अब्बड़ हंगामा।
संगी मन सन जान, खाय बर गरती आमा।।
गरमी के दिन श्लेष, कहाँ पहिली कस भाथे।
बचपन के बहुतेच, आज गा सुरता आथे।।
(7)
घर के मुखिया छत असन, रखथे मन मा भाव।
ये जिनगी के घाम ले, करथे हमर बचाव।।
करथे हमर बचाव, कभू मुसकुल मा फँसथन।
दुख-पीरा ला भूल, रहे ले ओकर हँसथन।।
बने अपन परिवार, चलाथे मिहनत कर के।
हरय छूप मा छाँव, वइसने मुखिया घर के।।
(8)
सुरता आथे गाँव के, बचपन जिंहाँ बिताय।
किसम-किसम के खेल मा, दिन हा उहाँ पहाय।।
दिन हा उहाँ पहाय, रेसटिप बाँटी खेलत।
अउ संझा हो जाय, दाम ला झेलत-झेलत।।
खेल कबड्डी श्लेष, खीक हो जावय कुरता।
हमर गाँव के खेल, आज भी हावय सुरता।।
(9)
खाथें गरुवा गाय सब, पैरा बारहमास।
ओकर मन के ये हरय, भोजन अब्बड़ खास।।
भोजन अब्बड़ खास, पालतू पशु के होथे।
छोटे-छोटे काट, कोढ़हा मा भी मोथे।।
हरियर-हरियर घास, कहाँ हर मौसम पाथें।
घर के भैंसी-गाय, इही पैरा ला खाथें।।
(10)
खाथें गरुवा मन सबो, पैरा बारो मास।
पैरा गरुवा गाय बर, भोजन अब्बड़ खास।।
भोजन अब्बड़ खास, पालतू पशु के होथे।
छोटे-छोटे काट, कोढ़हा मा भी मोथे।।
हरियर-हरियर घास, कहाँ हर मौसम पाथें।
घर के भैंसी-गाय, इही पैरा ला खाथें।।
(11)
उपजाऊ सब खेत मन, होवत हे बरबाद।
आज कृषक रासायनिक, डारत हावय खाद।।
डारत हावय खाद, कीटनाशक जहरीला।
खेती होगे आज, इहाँ अब्बड़ खरचीला।।
कहत श्लेष नादान, हरे ये काम चलाऊ।
गोबर खातू डार, बने रहिथे उपजाऊ।।
(12)
जानव गा खातू बिना, लगे फसल मा रोग।
अबड़ जरूरी खेत बर, खातू के उपयोग।।
खातू के उपयोग, समय मा करना चाही।
तभे खेत मा धान, बने संगी लहराही।।
श्लेष कहे कर जोर, गोठ ये सबझन मानव।
करना हे उपयोग, खाद के कब-कब जानव।।
(13)
पहुनाई मा देश के, सबले उप्पर नाम।
हमर नीक ब्यवहार ला, करथें सबो सलाम।।
करथें सबो सलाम, इँहा जउने मन आथें।
अउ जाथें जब लौट, हिन्द के गुण ला गाथें।।
सबला भाथें श्लेष, हमर मन के सच्चाई।
करथें जगत पसंद, इहाँ के बड़ पहुनाई।।
(14)
होथे सुग्घर गाँव मा, पहुना के सत्कार।
देथे मनखे मन उहाँ, मया प्रीत व्यवहार।।
मया प्रीत व्यवहार, सबो ला देना चाही।
तब तो अगले बार, दुवारी मा उँन आही।।
जब भी मिले सुयोग, गाँव के मन कब खोथे।
कथे हमर संस्कार, देवता पहुना होथे।।
(15)
चंगा राहन गाँव मा, खेलन दिन-भर खेल।
टोरन आमा जाम ला, संगी मार गुलेल।।
संगी मार गुलेल, निशाना अबड़ लगावन।
अउ जब बखरी जान, बेंदरा घला भगावन।।
सबले जादा भाय, खेल डंडा पचरंगा।
गाँव गँवइ के खेल, रखय सबझन ला चंगा।।
(16)
रहना सदा निरोग हे, अउ बनना बलवान।
खेलकूद सब खेल तँय, दे कसरत मा ध्यान।।
दे कसरत मा ध्यान, योग अभ्यास करे कर।
टहल बिहनिया रोज, शीत मुँहु मा चुपरे कर।।
श्लेष कहे कर जोर, मान ले संगी कहना।
कसरत कर अउ खेल, स्वस्थ तोला हे रहना।।
(17)
चलदिन कोदूराम जी, करके काम पुनीत।
छत्तीसगढ़ी मा लिखिन, सुग्घर-सुग्घर गीत।।
सुग्घर-सुग्घर गीत, उँखर जी सबला भाथें।
कबिता कथा निबंध, बने रद्दा देखाथें।।
कोदू जी ला याद, इहाँ रखहीं गा सबझिन।
हमर राज बर काम, बने ओ करके चलदिन।।
(18)
देवारी के दीयना, देथे ये संदेश।
कारी अँधियारी मिटे, उज्जर हो परिवेश।।
उज्जर हो परिवेश, इहाँ गा चारो कोती।
स्वस्थ रहे इंसान, उही हे हीरा-मोती।।
कहत श्लेष कविराय, भुलाके दुनियादारी।
परब मनावव खास, सबोझन गा देवारी।।
(19)
बानी मा गुरुदेव के, सरस्वती के वास।
दुनिया के सिरतोन गा, मनुख हरय ओ खास।।
मनुख हरय ओ खास, राष्ट्र निर्माता होथे।
देथे ओ संस्कार, ज्ञान के बीजा बोथे।।
बने पढ़ाथे पाठ, सुनाके गीत कहानी।
सुनव लगा के ध्यान, सदा सब गुरु के बानी।।
(20)
बिना बिचारे आजकल, देवत हवय बयान।
करत लफरहा मन इहाँ, नारी के अपमान।।
नारी के अपमान, करइया पापी होथे।
कर बचकानी गोठ, अपन इज्जत ला खोथे।।
मनखेमन ब्यवहार, इहाँ सब अपन सुधारे।
आघूकोनो काम, करयँ झन बिना बिचारे।।
★ श्लेष चन्द्रकर ★
महासमुंद (छत्तीसगढ़)
कुण्डलिया छंद - श्लेष चन्द्राकर
शीर्षक - बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर
(१)
भारत माता के रिहिस, भीमराव कस लाल।
संविधान लिख के करिन, जन-जन ला खुशहाल।।
जन-जन ला खुशहाल, रखे बर काम करइया।
तोला नमन हजार, सत्य के राह चलइया।।
तोर नाँव ले देश, लिखिस हे नवा इबारत।
सुरता करके आज, गरब करथे बड़ भारत।।
(२)
पढ़के अइस बिदेस ले, बाँटिस सबला ज्ञान।
भीमराव अंबेडकर, मनखे बनिस महान।।
मनखे बनिस महान, काम जनता बर करके।
लानिस हे बदलाव, भाव समता के भरके।।
आंदोलन मा भाग, लीस हावय बढ़-चढ़ के।
संविधान निर्माण, करिस हे अब्बड़ पढ़के।।
(३)
समता लाये बर लड़िस, भीमराव हा जंग।
भेदभाव ला छोड़के, कहिस रहे बर संग।।
कहिस रहे बर संग, देश के मनखे मन ला।
मिलय बने सनमान, दलित अउ सब निर्धन ला।।
जुरमिल रहय समाज, दिखय झन कहूँ विषमता।
बोलय बाबा भीम, देश मा राहय समता।।
Comments
Post a Comment