छत्तीसगढ़ी रोला - श्लेष चन्द्राकर

(1)
अपन हार स्वीकार, रखे रह कोशिश जारी।
होही तोरो जीत, एक दिन आही पारी।।
हार-जीत हा मीत, खेल मा होवत रहिथे।
अंतस ले स्वीकार, इही ला समता कहिथ।।
(2)
अपन हार ले सीख, तभे गा आघू बढ़बे।
तभे जीत के मीत, निसैनी मा तँय चढ़बे।।
जे हे कमी सुधार, बनाले खुद ला काबिल।
तोरो होही नाँव, विजेता मन मा शामिल।।
(3)
घर-बाहिर अपनाव, सबो झन साफ-सफाई।
रही रोग मन दूर, इही मा हमर भलाई।।
बने रथे परिवेश, तभे पहुना मन आथें।
साफ-सफाई देख, प्रशंसा करके जाथें।।
(4)
पड़ जाहू बीमार, गंदगी झन फैलावव।
काया रही निरोग, स्वच्छता ला अपनावव।।
अपन शहर अउ गाँव, बनावव सब मिल सुग्घर।
सड़क गली अउ खोर, दिखे चंदा कस उज्जर।।
(5)
सूखत हे हर साल, नदी नाला अउ तरिया।
अउ किसान के खेत, पड़त हावय अब परिया।।
कम होथे बरसात, हरय सब येकर सेती।
कइसे करय किसान, बतावव गा अब खेती।।
(6)
मलेरिया हा मीत, असर जब अपन दिखाथे।
जर मा काँपय देह, पछीना अब्बड़ आथे।।
अस्पताल मा जाव, दिखे जब अइसे लक्षण।
जिनगी हे अनमोल, करव येकर संरक्षण।।
(7)
मलेरिया तो आय, जानलेवा बीमारी।
लगथे जेला रोग, हानि पहुँचाथे भारी।।
खतरा झन लव मोल, तीर बइगा के जाके।
जिनगी अपन बचाव, दवाई येकर खाके।।
(8)
घर-घर पहिली दार, दरय जाँता मा सुग्घर।
बिना मिलावट रोज, मिलय खाये बर जी भर।।
पालिस वाला चीज, बिसा के अब गा खाथन।
होथे पेट खराब, तहाँ डाक्टर कर जाथन।।
श्लेष चन्द्राकर

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