ग़ज़ले श्लेष चन्द्राकर की...

(1) ग़ज़ल

सितम हर सिम्त ढ़ाया जा रहा है
जमीं पे जब्र बढ़ता जा रहा है

भरोसे के कोई क़ाबिल नहीं अब
कहाँ यारों जमाना जा रहा है

सितम बच्चों पे भी ढ़ाने लगा अब
कि ये इंसान गिरता जा रहा है

हुआ इंसान से नाराज सूरज
तपिश अपनी बढ़ाता जा रहा है

यहाँ हर हादिसे को यार अब तो
सियासत में उछाला जा रहा है

हवस में हो गया इंसान अंधा
बिना सोचे ही भागा जा रहा है

मिलेगा ‛श्लेष' अब इंसाफ़ कैसे
हक़ीक़त को छुपाया जा रहा है

(2) ग़ज़ल

खामियां हैं सुधार कर लें क्या
फैसले पर विचार कर लें क्या

फैसला आर पार कर लें क्या
मुल्क पे जाँ निसार कर लें क्या

तू तो हासिल हमें नहीं होगी
तेरे साये से प्यार कर लें क्या

फिर से आया चुनाव का मौसम
बोलिए जीत हार कर लें क्या

तुमको सम्मान मिल सके जग में
खुद को हम दाग़दार कर लें क्या

(3) ग़ज़ल

मैं तेरे सब नखरें सहता रहता हूँ
तेरी खुशियों ख़ातिर ऐसा रहता हूँ

जब से इश्क़ हुआ है मुझको तुझसे तो
सब कहते हैं बहका-बहका रहता हूँ

तुम रहती हो तो सब अच्छा लगता है
तुम बिन मैं तो खोया-खोया रहता हूँ

भूल यहाँ जाता हूँ तब दुनियादारी
जब तेरे सपनों में डूबा रहता हूँ

जब-जब पास तुम्हारे होता हूँ तो मैं
चाहत की बारिश में भीगा रहता हूँ

(4) ग़ज़ल

वो ऐसे ही न मुझपे मेहरबाँ था
नज़र में उसके मेरा आशियाँ था

चला छूने को फिर से आसमाँ था
कहाँ रोके से रुकता वो धुआँ था

सिखाया उसको जीना ठोकरों ने
कभी वो एक इंसाँ बदगुमाँ था

वहाँ आता नज़र अब कारखाना
जहाँ बचपन में प्यारा गुलिस्ताँ था

नहीं लगता ज़रा भी दिल नगर में
मैं अपने गाँव में ही शादमाँ था

(5) ग़ज़ल

एक जैसे सब यहाँ इंसान हैं रब के लिए
छोड़ दो लड़ना झगड़ना जाति मज़हब के लिए

सोचता अपने लिए और देखता अपनी खुशी
जी रहा इंसान अब तो अपने मतलब के लिए

चैन से जीने का हक़ हर आदमी को है यहाँ
माँगना रब से हमेशा तू दुआ सब के लिए

चार पैसे नट कमाता जान की बाज़ी लगा
फिर भी वो तैयार रहता अगले करतब के लिए

आप मंदिर मस्ज़िदों को बाँटते लाखों रकम
आइए आगे कभी बच्चों के मक़तब के लिए

(6) ग़ज़ल

जब भी पौधा बढ़ने लगता है हद से
मुश्किल में पड़ता है अपने ही कद से

सच में ही अच्छे दिन आने लगते है
घर में नन्ही सी बिटिया की आमद से

अश्क ख़ुशी के बहते आँखों से माँ की
लौट के बेटा जब घर आता सरहद से

जंग में सैनिक जब भी जाता है यारो
पीछे कब हटता है अपने मक़सद से

तू तू मैं मैं ही सुनने को मिलते हैं
अच्छी खबरें कम आती है संसद से

(7)

दर्द-ओ-ग़म का नहीं सिलसिला चाहिए
ज़ख़्म को भर सके वो दवा चाहिए

मुश्किलों से अकेले मैं कब तक लड़ूं
जो मेरा साथ दे हमनवा चाहिए

घर से निकलें हैं जो भी सफ़र के लिए
उनको तो मंजिलों का पता चाहिए

चुप ही रहना मुनासिब है लगता यहां
हो ज़रूरी तभी बोलना चाहिए

ज़ह्र क्यों घोलते हो फ़िज़ाओं में तुम
जीने को शुद्ध पानी हवा चाहिए

नाव जीवन की मझधार में है फँसी
जो बचाले हमें नाख़ुदा चाहिए

प्यार से बात करती है मिलती वो जब
इससे बढ़कर मुझे और क्या चाहिए

(8) ग़ज़ल

ऐसे रखना हैं हमें प्यार वफ़ा का रिश्ता
जैसे होता है सितारों से ज़िया का रिश्ता

क्यों सबक लेता नहीं अपनी खताओं से कुछ
आज इंसां से नहीं ठीक फ़ज़ा का रिश्ता

अपनी आगोश में जाने वो हमें कब ले ले
हम तो ठुकरा भी नहीं सकते कज़ा का रिश्ता

बस्तियाँ जलके कई ख़ाक़ यहाँ हो जाती
जोड़ जब देता कोई आग हवा का रिश्ता

आम इंसानों को बेवज़्ह सताने वालों
भूलना मत है गुनाहों से सज़ा का रिश्ता

(9) ग़ज़ल

बेवफा तुझसे मुहब्बत है मुझे
भूल पे अपनी नदामत है मुझे //१

वक़्त पे इंसाफ जो देती नहीं
उस अदालत से शिकायत है मुझे //२

मुफ़लिसों के काम आये जो यहाँ
ऐसे लोगो से मुहब्बत है मुझे //३

तुम शिकायत का पिटारा खोल दो
आजकल सुनने की फुर्सत है मुझे //४

जी रहा हूँ दर्द सहकर ज़िन्दगी
इसमें तो हासिल महारत है मुझे //५

करता हूँ मैं मुश्किलों का सामना
फिर भी सच कहने की आदत है मुझे //६

सेंकते हैं जो सियासी रोटियाँ
उन सभी से ‘श्लेष' नफ़रत है मुझे //७

(10) ग़ज़ल

गर आप हमें देंगे मौका तो भुनाएँगे
खाते हैं कसम अच्छा कुछ करके दिखाएँगे

जो भूल गए हँसना हम उनको हँसाएँगे
जीने का नया सबको अंदाज़ सिखाएँगे

गर साथ तुम्हारा भी मिल जाए दुबारा तो
रूठी हुई खुशियों को घर अपने बुलाएँगे

हम साथ खड़े हरदम दुश्मन से लड़ाई में
हम अपने जवानों को ये बात बताएँगे

हैं जिनमें नहीं जीने की चाह ज़रा सी भी
जीने की नई उनमें उम्मीद जगाएँगे

(11) ग़ज़ल

क्या हक़ीक़त है ये जानते कम से कम
पास जाकर अगर देखते कम से कम /1/

बोलने तुम लगे दुश्मनों की ज़ुबां
मुल्क़ के वास्ते सोचते कम से कम /2/

यार सच्चे मेरे तुम जो होते अगर
बात मेरी नहीं टालते कम से कम /3/

दूसरों पर लगाते हो इल्ज़ाम तुम
दिल में अपने कभी झांकते कम से कम /4/

सब पे करते हो तुम मेह्रबानी बहुत
श्लेष का हाथ भी थामते कम से कम /5/

(12) ग़ज़ल

फालतू बातों में मत गँवाया करो
वक़्त है कीमती यूँ न ज़ाया करो

ज़ुल्म सहना किसी पाप से कम नहीं
ज़ुल्म के सामने सर उठाया करो

जब मनाता तुम्हें प्यार से है कोई
भूल शिकवे गिले मुस्कुराया करो

लोग कमजोर दिल का तुम्हें बोलते
अश्क हर बात पे मत बहाया करो

जो वतन के लिए जान देते लुटा
उनके सम्मान में सर झुकाया करो

काम आते सदा जो बुरे दौर में
वक़्त पे साथ उनका निभाया करो

ख़ौफ से गर खुदा के तुम्हें बचना है
मुफ़लिसों को कभी मत सताया करो

ग़म भुलाकर लगें लोग हँसने यहाँ
काम ऐसा कभी कर दिखाया करो

इश्क़ करते हो गर श्लेष उससे बहुत
उसके तुम नाज़ नखरे उठाया करो

(13) ग़ज़ल

ढ़ूंढ़ता हूँ वो आश्ना कोई
जो बता दे तेरा पता कोई

ज़िन्दगी लगती है सज़ा कोई
देता है अपना जब दगा कोई

जब ग़लत रास्ते पे हम चलते
काम आती नहीं दुआ कोई

किसको फ़ुर्सत ये जानने की अब
इश्क़ में हो गया फ़ना कोई

अक्स तेरा मुझे दिखे जिसमें
पास रख दे वो आइना कोई

जाना खुद को तो इस जहां भर में
मुझसे बढ़कर नहीं बुरा कोई

चोट लगती है श्लेष इस दिल को
कहता है जब बुरा-भला कोई

(14) ग़ज़ल

सबको देती बदी ज़लालत है
नेकियों से ही मिलती शुहरत है

उसके चेहरे की बदली रंगत है
लगता है बढ़ गई मुसीबत है

वो तो नेता है मत यकीं करना
बोलना झूठ उसकी फ़ितरत है

खुद पे इतना गुमान मत करना
चार दिन साथ देती दौलत है

बचने सरकार ने वबा से अब
घर में रहने की दी हिदायत है

निर्दयी वायरस है कोरोना
बच गए इससे तो ये क़िस्मत है

होशियारी बघारने वाला
श्लेष कब मानता नसीहत है

(15) ग़ज़ल

कोशिशों में गर कोई उससे कमी रह जायेगी
ज़िन्दगी से दूर उसकी हर खुशी रह जायेगी //१

ज़िन्दगी में इश्क़ के ही तो बदौलत है ज़िया
इसके बिन तो दोस्तो बस तीरगी रह जायेगी //२

दे गया है फिर दगा बरसात का मौसम उसे
क्या समंदर से मिले बिन वो नदी रह जायेगी //३

रोशनी को बाँटनें वाला भी कोई चाहिए
चाँद के बिन नाम की बस चाँदनी रह जायेगी //४

फैसला हक़ में सुनायेगा नहीं मुंसिफ़ तेरे
बात कोई श्लेष तुझसे अनकही रह जायेगी //५

(15) ग़ज़ल

देखो तो इस जहां में हैं दिलदार कम नहीं
इंसानियत के आज परस्तार कम नहीं //1

आते मदद को लोग मुसीबत में सामने
मतलब के दौर में भी मददगार कम नहीं //2

कोशिश तो मुस्कुराने की करते हैं हम बहुत
पर क्या करें हयात में आज़ार कम नहीं //3

दिल का हमारे ज़ख़्म भरे भी तो किस तरह
इसमें नमक छिड़कने को अग़्यार कम नहीं //4

चलना है ‘श्लेष' तुमको सदाक़त की राह पे
ईमान बेचना हो तो बाज़ार कम नहीं //5

(16) ग़ज़ल

कोई भी देगा तुम्हें इज़्ज़त नहीं
पालना दिल में कभी नफ़रत नहीं

होगा हर दिन मुश्किलों से सामना
हक़ बयानी की अगर हिम्मत नहीं

पद प्रतिष्ठा यूँ कमाने में लगे
बाल-बच्चों के लिए फुर्सत नहीं

सादगी को शख़्सियत में ढालना
इससे बढ़कर कोई भी दौलत नहीं

जिससे लोगों को बड़ी तक़लीफ हो
श्लेष ऐसी पालना आदत नहीं

(17) ग़ज़ल

देश का बिगड़ा बहुत परिवेश बापू
खो गए हैं आपके संदेश बापू

तल्ख़ लहजे में यहाँ सब बात करते
प्यार से आते नहीं हैं पेश बापू

आम जन के जो गले की फाँस बनते
ज़ारी होते बेतुके आदेश बापू

भावना अपनत्व की खोने लगी है
होते घर-घर में बहुत अब क्लेश बापू

शांति का संदेश फैलाते जहां में
कम दिखाई देते हैं दरवेश बापू

(18) ग़ज़ल

ज़ीस्त में वो शख़्स प्यारा था कभी
जिसको छुप-छुप के निहारा था कभी

दश्त नदियाँ जब सलामत थें वहाँ
गाँव का दिलकश नज़ारा था कभी

मुल्क़ को आजाद करने के लिए
हर किसी का एक नारा था कभी

जुल्मतों में खो के वो अब रह गया
जो चमकता इक सितारा था कभी

अब तुम्हारा हो गया है ऐ सनम
दिल कभी ये जो हमारा था कभी

(19) ग़ज़ल

दिल के अंदर खुशी मचलती है
आपकी बात जब निकलती है

यार, तू दिल में हौसला रखना
एक दिन ग़म की साँझ ढ़लती है

पूछ मत हाल तू दिवाने का
ये ग़नीमत की साँस चलती है

चैन मिलता बहुत है इस दिल को
दर्द की शम्अ जब पिघलती है

‛श्लेष' ये कौन जान पायेगा
दिल में नफ़रत किसी के पलती है

(20) ग़ज़ल

वो गले से लगा गया है मुझे
प्यार करना सिखा गया है मुझे

बोलता हूँ बहुत सियासत पर
चुप रहूँ अब कहा गया है मुझे

हाल अपना नहीं सुना सकता
प्यार से यूँ छला गया है मुझे

गाँव की याद अब नहीं आती
यार, ये शह्र भा गया है मुझे

है मज़ा बस, यहाँ फ़क़ीरी में
वो मसीहा बता गया है मुझे

(21) ग़ज़ल

बात ये सच है मियां इससे कहाँ इनकार है
ज़िन्दगी जो अपनी शर्तों पे जिये ख़ुद्दार है

कम किसी को आंकने की भूल मत करना कभी
सामने वाला भी रखता आधुनिक हथियार है

हो गया है हादसा तो भूल जाना ही सहीह
रातदिन उस बात को तो सोचना बेकार है

फैलती हैं नफ़रतें ख़बरें वो ऐसी छापता
उसको तो हर हाल में बस बेचना अख़बार है

काम करता है वही जिसकी मनाही की गई
‛श्लेष' अपनी आदतों से आज भी लाचार है

(22) ग़ज़ल

अंगारों पर मैंने चलना सीखा है
हर मुश्किल में यार सँभलना सीखा है

राह नहीं मैं आसानी से भटकूँगा
साथ सभी को लेकर चलना सीखा है

चाल मुख़ालिफ़ चाहे जितनी चल लो तुम
मैंने हर साँचे में ढलना सीखा है

पत्थर दिल हूँ ऐसा तुम क्यों कहते हो
दिल ने मेरे यार पिघलना सीखा है

श्लेष दुआएँ लेकर चलता अपनों की
तब मुश्किल हालात बदलना सीखा है

(23) ग़ज़ल

आज़माते लोग हर दम क्या करें
कुछ बचा हैं अब न दमख़म क्या करें

कर्ज लेकर हम उगाते हैं फसल
जब नहीं दे साथ मौसम क्या करें

ज़िंदगी घुट-घुट के यारो जी रहे
बाँटना आता नहीं ग़म क्या करें

चाल चलकर ये सियासतदान तो
ख़ूब ढाते हैं सितम हम क्या करें

श्लेष चलते मंच पर अब चुटकुले
शायरी मेयार कायम क्या करें

(24) ग़ज़ल

और काबिल हमें बनाती हैं
गलतियां तो सबक सिखाती हैं

उम्र अपनी भले छुपाले हम
झुर्रियाँ सत्य बोल जाती हैं

व़क्त आता है तब गुनाहों पर
जिन्दगी फैसलें सुनाती हैं

जीतने के लिए बुराई से
नेकियाँ ही तो काम आती हैं

रोज़ अभ्यास करते रहने से
दूर कठिनाइयां हो जाती हैं

(25) ग़ज़ल

आँधियों  की  तरह  आ  रहे वायरस
हर  तरफ   मौत  फ़ैला  रहे  वायरस

हो   गई   आज  लाचार   इंसानियत
बाँट  कर  ख़ौफ  इतरा  रहे  वायरस

क़ैद  घर  में  ही  हम  हो  गए देखिए
क़ह्र  दुनियाँ  पे  यूँ   ढा  रहे  वायरस

क्या  ख़ता  हो  गई  ये  बताए  बिना
क्यों क़्यामत के दिन ला रहे वायरस

दोस्त  अहबाब  से  हो  गये  दूर हम
बे  रहम  बन  के  तड़पा रहे वायरस

बस में इंसान के  कुछ नहीं अब रहा
आज तो श्लेष  घर  आ रहे   वायरस

(26) ग़ज़ल

इस ज़माने को सुनाना रह गया
इक अधूरा सा फ़साना रह गया

काम अपना कर दिया अफवाह ने
आग से बस्ती बचाना रह गया

अपने दिल में जब न दी तुमने जगह
दिल का पंछी बेठिकाना रह गया

ये ज़माना ले चुका है इम्तिहाँ
बस तुम्हारा आज़माना रह गया

इस कदर लूटा गया है ये चमन
श्लेष बस खाली ख़जाना रह गया

(27) ग़ज़ल

ज़ीस्त में तुम ये फ़लसफ़ा रखना
लब पे सबके लिए दुआ रखना

जो भी इंसानियत के दुश्मन हैं
ऐसे लोगों से फ़ासला रखना

गर वबा से निजात पाना है
उससे लड़ने का हौसला रखना

सर के ऊपर हो एक अपनी छत
ख़्वाब आँखों में वो सजा रखना

ख़त्म नफ़रत किसी से करना हो
तो मरासिम का सिलसिला रखना

जो गिनाए तुम्हारी कमियों को
सामने ऐसा आइना रखना

तीरगी दूर हो ज़हालत की
श्लेष वो शम्अ तू जला रखना

(28) ग़ज़ल

कहके अपना कोई तो बुलाये मुझे
अपने दिल के जहां में बसाये मुझे

ऐसा भी ज़िंदगी में बशर हो कोई
रूठ जाऊँ कभी तो मनाये मुझे

दोस्त होगा वही सच में मेरा यहाँ
आइना सच का जो भी दिखाये मुझे

उसको ढ़ूँढू कहाँ जाके मैं आज जो
नेक राहों पे चलना सिखाये मुझे

उसको करना मुक्कमल ग़ज़ल है अगर
क़ाफ़िया हूँ वो आखिर निभाये मुझे

(29) ग़ज़ल

कठिन इक मस्अला है और मैं हूँ
बचाने को खुदा है और मैं हूँ

ये माना दूर है मंज़िल अभी तो
मगर दिल में रज़ा है और मैं हूँ

यकीं है एक दिन सब ठीक होगा
तुम्हारा मशविरा है और मैं हूँ

बराबर की नहीं ये तो लड़ाई
ज़माने की जफ़ा है और मैं हूँ

अकेला मत समझना बाग़बां में
वहाँ मौज ए शबा है और मैं हूँ

(30) ग़ज़ल

देते हैं अक्सर चोट ज़िगर पे
मतलब से जो आते हैं दर पे

मंज़िल उनको मिलकर ही रहती
चलते हैं जो बेख़ौफ़ डगर पे

गर जुर्म किसी के हित में होता
इल्ज़ाम तुम्हारा लेते सर पे

डरते उसको और डराते लोग
काबू पाना सीखो तुम डर पे

हुक्का-पानी बंद यहाँ करते
‘श्लेष' अगर बोलो आडंबर पे

(31) ग़ज़ल

आग दिल में जनाब रखता हूँ
हौसला बेहिसाब रखता हूँ

रोज़ चेहरा बदलना है पड़ता
साथ अपने नक़ाब रखता हूँ

जो निगाहों से आपने पूछा
मैं तो उसका जवाब रखता हूँ

हाल क्या पूछ्ते हो मेरा
ग़म की मैं तो किताब रखता हूँ

मैं तो पैग़ाम प्यार का देने
हाथ में इक गुलाब रखता हूँ

गिनता रहता मैं हिज़्र के लम्हे
हर घड़ी का हिसाब रखता हूँ

(32) ग़ज़ल

यहाँ अब बावफ़ा कोई नहीं है
जहां भर में भला कोई नहीं है

गलत होते सभी बस देखते अब
उठा सर बोलता कोई नहीं है

ज़माने में बहुत ढ़ूंढा है लेकिन
भला इंसां मिला कोई नहीं है

सियासत में सभी निकले हैं खोटे
खरा सिक्का मिला कोई नहीं है

गिनाते दूसरो के ऐब सब ही
स्वयं को देखता कोई नहीं है

(33) ग़ज़ल

मंज़िल का मेरे यार है आसां सफ़र नहीं
तू मुश्किलों से हार के जाना ठहर नहीं

जीता वही है ज़ीस्त को दुन्या में शान से
सच बोलने से जिसको ज़रा सा भी डर नहीं

राहों के ठोकरों से जो आगाह कर सके
मिलता जहां में ऐसा हमें हमसफ़र नहीं

खुद पे रहा यकीन हमें दोस्तो बहुत
हम तो रहे किसी पे यहाँ मुनहसर नहीं

वो काम की तलाश में दर-दर भटकता है
ऐ श्लेष जिसके हाथ में होता हुनर नहीं

(34) ग़ज़ल

दूर मुझसे बहुत खुशी है अभी
रूठी रूठी सी ज़िन्दगी है अभी

हर तरफ देख तीरगी है अभी
बाँटना तुझको रौशनी है अभी

जानलेवा वबा है कोरोना
जी रहा डरके आदमी है अभी

छोड़ तू शय बुरी सियासत है
शर्म थोड़ी अगर बची है अभी

मेरी इस जिंदगी में लगता है
इक भले दोस्त की कमी है अभी

देखना है अभी तो ये दुन्या
मेरी आंखें तो बस खुली है अभी

मत उड़ा तू मजाक मेरा श्लेष
ज़िन्दगी मुझपे हँस रही है अभी

(35) ग़ज़ल

दिलों से दूरियाँ हमको मिटाने की ज़रूरत है
वतन को खुशनुमा फिर से बनाने की ज़रूरत है

बिगाड़ा है जहां का खुशनुमा माहौल नफ़रत ने
मुहब्बत की नदी फिर से बहाने की ज़रूरत है

बुजुर्गो ने सँवारा था वतन को खून दे अपना
हमें मेयार इसकी अब बढ़ाने की ज़रूरत है

वबा से लड़़ रहे बेख़ौफ़ हो जाँबाज़ अपने जब
हमें भी फ़र्ज़ अपना अब निभाने की ज़रूरत है

सभी जीते यहाँ खुद के लिए क्यों ज़िन्दगी है ‘श्लेष'
ज़माने के लिए जी कर दिखाने की ज़रूरत है

(36) ग़ज़ल

कामयाबी के लिए इंसान अब।
बेचता है दोस्तो ईमान अब

पावती में पहले से लिखके रकम
लोग आते माँगने को दान अब

कैसे हैं माँ-बाप ये परवा नहीं
सोचती खुद के लिए संतान अब

दूसरों से क्या रखे उम्मीद हम
अपने ही देते नहीं सम्मान अब

कुछ करो खबरों में छाने के लिए
श्लेष बनती ऐसे ही पहचान अब

(37) ग़ज़ल

नफ़रत भुलाके इश्क़ से सरकार देखते
सब लोग देते तुमको बहुत प्यार देखते

लगती तुम्हारी नाँव सहल पार देखते
किस ओर गर हवा की है रफ़्तार देखते

होता न राज झूठ का ये बोलता हूँ मैं
परदा हटाके आँख से सच यार देखते

क्या हो रहा जहान में चलता पता तुम्हें
ऐ दोस्त रोज़ सुब्ह का अख़बार देखते

अपनी अना को छोड़ के करते मुकाबला
ऐ ‘श्लेष' ऐसे फिर न कभी हार देखते

(38) ग़ज़ल

बनके इक शैतान यारां खो नहीं पहचान को
तू अगर इंसान है तो मार मत इंसान को /१/

यूँ मुसीबत की घड़ी में हौसला मत हारना
रास्ता कुछ तो खुलेगा याद कर भगवान को /२/

हर हसीं पे चाहता है ये तो होने को फिदा
बस में क्यों रहता नहीं समझा दिल-ए-नादान को /३/

नेक बनकर ज़िन्दगी गर तुम बिताना चाहते
जो छुपा अंदर तुम्हारे मार उस शैतान को /४/

बात उनसे तू किया कर लौटकर दफ़्तर से घर
बूढ़े माता और पिता के तोड़ मत अरमान को /५/

बात ये ऐ श्लेष अब दुनिया में बेहद आम है
बेचते हैं लोग लालच में यहाँ ईमान को /६/

(39) ग़ज़ल

फ़िदा तुम पे दिल ये हमारा न होता
अगर हुस्न इतना सँवारा न होता

नहीं टूटती गर ये पतवार यारो
बहुत दूर मुझसे किनारा न होता

बदलता मैं किस्मत जो मेहनत के बल पे
तो गर्दिश में मेरा सितारा न होता

मिली होती मुझको ख़ता की मुआफी
तो तन्हा ये जीवन गुज़ारा न होता

अगर छोड़ देता वो अपनी अना को
कभी ज़िंदगी में वो हारा न होता

न खिलवाड़ कुदरत से हम करते रहते
वबा से जहां को ख़सारा न होता

न चल पाता ऐ श्लेष तू दो क़दम भी
जो माँ की दुआ का सहारा न होता

(40) ग़ज़ल

सिर पे घर का भार उठाकर देखो तो
बाबू जी का हाथ बँटाकर देखो तो

क्या होती सच्ची यारी तुम जानोगे
इक मुफ़लिस को दोस्त बनाकर देखो तो

जीवन जीना कितना मुश्किल दुनिया में
चप्पू के बिन नाव चलाकर देखो तो

ज़ीस्त से ग़म के अँधियारे छँट जाएंगे
उम्मीदों का दीप जलाकर देखो तो

कितने लोग मदद को आते आगे हैं
संकट में आवाज़ लगाकर देखो तो

बाल न बाँका कर पायेगी ये दुनिया
सच्चाई को ढाल बनाकर देखो तो

अक्स तुम्हारा साफ नज़र आयेगा श्लेष
आईने से धूल हटाकर देखो तो

(41) ग़ज़ल

जब बिछा के वे जाल जाते हैं
चार दाने भी डाल जाते हैं

घर का गुस्सा यहाँ तो साहिब लोग
बाबूओं पे निकाल जाते हैं

फ़ायदा लेने को सियासत में
वे तो मुद्दे उछाल जाते हैं

होते हैं आलसी यक़ीनन वे
काम जो कल पे टाल जाते हैं

लोग मतलब से अब किसी के घर
पूछने हालचाल जाते हैं

देना मुश्किल जवाब जिनके हो
ऐसे पूछे सवाल जाते हैं

श्लेष मुश्किल उन्हें हैं समझाना
भ्रम जो झूठें पाल जाते हैं

(42) ग़ज़ल

अपना ये मुल्क़ जान लो कितना महान है
सबसे अलग जहान में हिन्दोस्तान है

हर ओर बहती पाक हवाएँ सुहावनी
हर बाग़ में महकता यहाँ ज़ाफ़रान है

अच्छा करेंगे काम सदा इसके वास्ते
हमको उठाना देश का दुनिया में मान है

भारत की पाक मिट्टी पे लेता है जन्म जो
वो तो समझता खुद को बड़ा भाग्यवान है

बिल्कुल नहीं अदू का हमें ख़ौफ दोस्तो
उत्तर में हिमगिरी जो खड़ा पासबान है

आँगन में जिसके खेल के हम सब बड़े हुए
भारत हमारा एक वो प्यारा मकान है

रहते हैं लोग प्यार से हर धर्म के यहाँ
ऐ श्लेष अपने हिन्द पे मुझको गुमान है

(43) ग़ज़ल

तू है तो ये हसीन मंज़र है
खुशनुमा रूह मेरे अंदर है

तुझसे मिलकर ही शांत होगा अब
उठ रहा दिल में जो बवंडर है

वो न होता यकीन के काबिल
पीठ में घोंपता जो ख़ंजर है

चाल चलके जो जीतना जाने
शख़्स वो आज का सिकंदर है

ढूंढता है जिसे तू दूनिया में
श्लेष वो रब तो तेरे अंदर है

(44) ग़ज़ल

विसाल की है बहुत बेक़रारी आँखों में
तुम्हारी याद में शब है गुज़ारी आंखों में

बिना बताये ही करती है ये हमें घायल
छुपा के रक्खी है तुमने कटारी आँखों में

भरा है प्यार तुम्हारे लिए बहुत यारां
कभी तो झाँक के देखो हमारी आँखों में

हसीं फ़िज़ा में हमारा भी एक घर होगा
सजाया हमने ये सपना कुँवारी आँखों में

तुम्हें यहाँ जो कोई एक टक अगर देखे
रहेगा डूब के वो तो तुम्हारी आँखों में

(45) ग़ज़ल

आजकल गुमसुम बहुत रहता हूँ मैं
कैसे कह दूँ दोस्तो अच्छा हूँ मैं

पूछता कोई नहीं कैसा हूँ मैं
इस जहां में किस कदर तन्हा हूँ मैं

हक़ बयानी की मिली ऐसी सज़ा
आजकल हर शख़्स को चुभता हूँ मैं

चापलूसी की नहीं यारो कभी
इसलिए आगे न बढ़ पाया हूँ मैं

मिल न पाई श्लेष मुझको वह खुशी
उम्र भर जिसके लिए तरसा हूँ मैं

(46) ग़ज़ल

वीरानगी रहे तो क्या जलवा दिखाये गुल
उजड़ा हो गर चमन तो क्या खुशबू लुटाये गुल

जीना ये जिंदगी हमको यूँ सिखाये गुल
काँटों के बीच खिल के भी जब मुस्कुराये गुल

फुर्सत मिले तो देखना इंसान ने यहांँ
मतलब परस्त होकर कितने खिलाये गुल

नफ़रत की आँधियों से भला किसका है हुआ
मौसम हो खुशगवार तभी खिलखिलाये गुल

एहसान उसका श्लेष चुकाएंगे किस तरह
कुर्बान होके सेज हमारी सजाये गुल

जीना हमें हैं जीवन कैसे सिखाये गुल
काँटों के बीच खिल के भी जब मुस्कुराये गुल

गर हो सके तो देखना इंसान ने यहांँ
मतलब परस्त होकर क्या-क्या खिलाये गुल

(47) ग़ज़ल

टूटे हुए मेरे इस दिल का तू साज़ हो जा
कब से अधूरी है वो पूरी नियाज़ हो जा

इस ज़िन्दगी में अपनी फिर जलजला न आये
दिल में छुपा है कब से ऐ दफ़्न राज़ हो जा

हमने चमन सजाने को बागडोर सौंपी
किसने कहा था तुमको के जालसाज़ हो जा

दुनिया के वास्ते कुछ ऐसा काम करके
तू आसमां भी छू ले इतना फ़राज़ हो जा

सुन श्लेष तू ये दुनिया इतनी बुरी नहीं है
ग़म पाल के क्यों बैठा है खुशमिज़ाज़ हो जा

(48) ग़ज़ल

बैठा फिर घात में शिकारी है
देखना आज किसकी बारी है

नाम पर दर्ज फौज़दारी है
तो सियासत में लाभकारी है

ऐ खुदा मत किसी को देना यूँ
ज़िन्दगी मैंने जो गुज़ारी है

गर परिंदे नज़र न आये तो
सूनी लगती बड़ी अटारी है

दिल नहीं तोड़ता किसी का वो
होता जो प्रेम का पुजारी है

लाखों में एक शख़्स होता वो
देता जो ब्याज बिन उधारी है

(49) ग़ज़ल

याद बचपन की पुरानी और है
दास्तां तुमको सुनानी और है

सुनके पूरी यार तुम जाना कहीं
कुछ बची मेरी कहानी और है

वो दिखावा करता है यारो बहुत
काम उसका खानदानी और है

प्यार की बारिश हुई थी कल तभी
दिल के दरिया की रवानी और है

कल हमें जिसपर बहुत ही था गुमां
वो नहीं ये राजधानी और है

पास मेरे और लाती है तुम्हें
दर्द की ये तर्जुमानी और है

देख लेना श्लेष आकर तुम कभी
गाँव की नदियों का पानी और है

(50) ग़ज़ल

पाठ गीता का पढ़ाओ कृष्ण जी
फिर जमीं पर लौट आओ कृष्ण जी

नारियों पर ज़ुल्म ढाते दुष्ट जन
लाज उनकी तुम बचाओ कृष्ण जी

कौरवों से आज का अर्जुन लड़े
हौसला उसका बढ़ाओ कृष्ण जी

चाल शकुनी की तरह जो चल रहे
आके उनको फिर हराओ कृष्ण जी

कंश दुर्योधन अभी भी हैं यहाँ
दंभ को उनके मिटाओ कृष्ण जी

(51) ग़ज़ल

दूर करते क्लेश इंटरनेट से
दे रहें उपदेश इंटरनेट से

आप भी देखे तमाशा ये गजब
चल रहा है देश इंटरनेट से

चिट्ठियाँ आती कहाँ हैं आजकल
भेजते संदेश इंटरनेट से

है जहाँ जाना वहाँ का देख लो
कैसा है परिवेश इंटरनेट से

दूर मीलों रहके भी अब हुक्मरां
देता है आदेश इंटरनेट से

बात करता है प्रिया से प्यार की
आजकल प्राणेश इंटरनेट से

आनलाइन 'श्लेष' सजती महफ़िलें
शे'र करते पेश इंटरनेट से

(52) ग़ज़ल

जब ग़मों से मेरी दोस्ती हो गयी
और बेहतर मेरी शायरी हो गयी

जब किसी की मदद को उठे हाथ ये
सर झुकाये बिना बंदगी हो गयी

जो सताये हुए हैं सताती उन्हें
इस क़दर बेकरम ज़िंदगी हो गयी

बदनसीबी किसे कहते पूछो उसे
दूर जिससे बहुत हर खुशी हो गयी

तुमसे ही नूर था श्लेष की ज़ीस्त में
रौशनी तुम किसी और की हो गयी

(53) ग़ज़ल

फाँसता है डालकर दाना हमें
दे रहा वो इस कदर धोखा हमें

तिश्नगी बुझती नहीं इक बूँद से
चाहिए इस दौर में दरिया हमें

राज़ खुल जाता यहाँ है झूठ का
साथ में सच के सदा चलना हमें

एक जैसे हैं सियासतदां सभी
जानते हैं ये तो बस छलना हमें

जान देंगे श्लेष हम इसके लिए
है बहुत अपना वतन प्यारा हमें

(54) ग़ज़ल

दबी चिंगारियां सुलगा रहे हैं
सियासत खूब वे चमका रहे हैं

नसीहत रास ना आई तो यारो
हमें मिलने से अब कतरा रहे हैं

ज़ुबां मत खोल दे मुंसिफ़ के आगे
गवाहों को डरा-धमका रहे हैं

सुधरने की कभी कोशिश न की पर
ज़माने को गलत बतला रहे हैं

यहाँ इंसानियत के लोग दुश्मन
हदों से अब गुज़रते जा रहे हैं

हटाकर एक-दो पाबंदियों को
किया एहसान यूँ जतला रहे हैं

पड़ोसी की बताकर ‛श्लेष’ साज़िश
यहाँ अपनों को अब लड़वा रहे हैं

(55) ग़ज़ल

धर्म के नाम पर बंद उत्पात हो
सिर्फ इंसानियत की यहाँ बात हो

लोग मिलने लगे दुश्मनी भूलकर
उस हसीं दौर की अब शुरूआत हो

अपना किरदार दुनिया में ऐसा रहे
लोग दें मान जब भी मुलाकात हो

ऐ खुदा है गुज़ारिश यही आपसे
घर किसी का ढ़हे यूँ न बरसात हो

श्लेष अच्छा रहेगा जहां के लिए
धर्म इक ही रहे और इक जात हो

(55) ग़ज़ल

अजनबी की तरह यूँ न व्यवहार कर
अपनों से टूटकर यार तू प्यार कर

अब तेरी बात में फिर नहीं आयेंगे
जो दिखाया हमें स्वप्न साकार कर

तू मिले ना मिले ये अलग बात है
इश्क़ में खुश हुए हम तो दिल हार कर

छोड़ हथियार तू हाथ में फूल रख
क्या मिलेगा बता अपनों को मार कर

श्लेष कब तक मिलायेगा तू हाँ में हाँ
जो मुनासिब नहीं बात इंकार कर

(56) ग़ज़ल

यूं वो रिश्ते निबाह लेता है
ग़म में सबके कराह लेता है

होके मजबूर कोई दुन्या में
अपने सर पे गुनाह लेता है

चैन से जी नहीं यहाँ सकता
जो गरीबों की आह लेता है

सोचकर ही अवाम की ख़ातिर
फैसला बादशाह लेता है

कौन उसका यहाँ बिगाड़े कुछ
रब जो तेरी पनाह लेता है

दोस्त सच्चा वही ज़माने में
दर्दो-ग़म की जो थाह लेता है

ख़ून होता यक़ीन का यारो
जब भी रिश्वत गवाह लेता है

(57) ग़ज़ल

फिर से आये बहार का मौसम
मेरे जीवन में प्यार का मौसम

ज़ीस्त जद्दोजहद में गुजरी है
अब तो दे दे क़रार का मौसम

जीत तकदीर में नहीं शायद
सिर्फ़ देखा है हार का मौसम

मुल्क में जब चुनाव होता है
रहता है इश्तिहार का मौसम

मुफ़लिसों के नसीब में लिक्खा
दोस्त किसने उधार का मौसम

करता बेचैन इश्क़ वालों को
इश्क़ में इंतज़ार का मौसम

श्लेष अब देखने यहाँ मिलता
रात दिन बस ग़ुबार का मौसम

(58) ग़ज़ल

वो देके गाली बुला रहा था
तमीज़ ऐसे सिखा रहा था

कही है मैंने बता रहा था
ग़ज़ल किसी की सुना रहा था

उजाड़ कर मुफलिसों की बस्ती
शोरूम अपना बना रहा था

लगाने वाला सभी पे तोहमत
शरीफ़ है खुद जता रहा था

सुना के झूठी वो फिर कहानी
अवाम को बरगला रहा था

जवाब देना पड़े न उसको
सवाल से डरके जा रहा था

रखी किसी ने जो श्लेष माँगे
तो झुनझुना वो थमा रहा था

(59) ग़ज़ल

फाँसता है डालकर दाना हमें
दे रहा वो इस कदर धोखा हमें

तिश्नगी बुझती नहीं इक बूँद से
चाहिए इस दौर में दरिया हमें

राज़ खुल जाता यहाँ है झूठ का
साथ में सच के सदा चलना हमें

एक जैसे हैं सियासतदां सभी
जानते हैं ये तो बस छलना हमें

जान देंगे श्लेष हम इसके लिए
है बहुत अपना वतन प्यारा हमें

(60) ग़ज़ल

गिरे गर तो खुद ही सँभलते रहेंगे
है माहौल वैसा ही ढ़लते रहेंगे

रहेंगे न पीछे कभी ज़िन्दगी में
अगर वक़्त के साथ चलते रहेंगे

रखेंगे नई बात जब तक नहीं हम
पुराने ही मुद्दे उछलते रहेंगे

न होंगे खड़े गर मुख़ालिफ़ तो यारों
वो अरमां हमारे कुचलते रहेंगे

जो किरदार देगी हमें श्लेष दुनिया
उसी के मुताबिक़ बदलते रहेंगे

श्लेष चन्द्राकर,
पता:- खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, वार्ड नं.- 27,
महासमुन्द (छत्तीसगढ़) पिन - 493445,
मो.नं. :- 9926744445 (व्हाट्स अप)
जी-मेल :- shleshshlesh@gmail.com

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