छत्तीसगढ़ी सार छंद

★ सावन के सम्मारी ★

भक्ति भाव के रस मा डूबे, हावय पारा-पारा।
अविनाशी भोलेबाबा के, गूँजत हे जयकारा।।

कतको झन उपवास रखे हें, भोले के भक्तनमन।
सावन के सम्मारी होथे, संगी दिन बड़ पावन।।

लेके शिव के नाँव करत हें, पार नदी अउ नाला।
काँवर मा पानी धरके सब, जावत हवयँ शिवाला।।

पानी ले नँउहावत हावय, अउ गावत हे गाना।
चढ़हावत हे शिवशंभू ला, फूल बेल के पाना।।

शिवजी के द्वारी ले कोनो, जावय नइ गा जुच्छा।
भक्तनमन के पूरा करथे, भोलेबाबा इच्छा।।

★ खई खजानी ★

किसम-किसम के टिकिया बिस्कुट, अब के कहाँ सुहाथे।
खई खजानी लइकापन के, सुरता अब्बड़ आथे।।

भरे रहन गा मुँहु मा दिनभर, टिकिया पिंवरा हरियर।
अमली के चटनी सँग खावन, चानी-चानी नरियर।।

खान पदीना टिकिया दिनभर, बिसा-बिसा के कतको।
घेरीबेरी नड्डा खावन, आय पेट मा जतको।।

बने करी लाडू हा लागय, मुरकु घला सुहावय।
कम पइसा मा ये सब संगी, अब्बड़ कन आ जावय।।

बने चना-चरपट्टी लागय, बोजन दोना-दोना।
गुल्फी खाके ओकर लकड़ी, फेंकन कोना-कोना।।

नोनी मन बोईर गुड़ा खा, लाली होंठ रचावयँ।
देखा-देखा के सबझन ला, ओमन हा मुस्कावयँ।।

चूरन के पुड़िया खीसा मा, धरके घूमत राहन।
संगी-साथी मिल जाये ले, बाँट-बाँट के खावन।।

चार-आठ आना मा आवय, कतको खई खजानी।
लइकापन के ओ दिन बादर, बनगे आज कहानी।।

★ विषय- सावन★

खास महीना होथे सावन, गिरथे रिमझिम पानी।
सुग्घर दिखथे इहाँ पहिर के, धरती चूनर धानी।।

इंद्रदेव हा किरपा करथे, पानी बड़ बरसाथे।
खेत लबालब भर जाथे गा, खुश किसान हो जाथे।।

शिवभक्तन बर बड़ विशेष हे, सावन के सम्मारी।
शिव ला पानी चढ़हाये बर, जाथे नर अउ नारी।।

छत्तीसगढ़ी मन के पहिली, परब हरेली आथे।
जेला हमर किसनहा मन हा, मिलके सबो मनाथे।।

परब हरेली मा चढ़थे गा, गेंड़ी लइका सबझिन।
रापा नाँगर बइला मन के, पूजा होथे ये दिन।।

हमर राज बर होथे संगी, खास महीना सावन।
रक्षाबंधन तीजा जइसे, परब मनाथन पावन।।

★ विषय - बादर ★

का होगे बादर ला संगी, छोड़िस फेर बरसना।
पानी बर अब खेत खार ला, हावय पड़त तरसना।।

बने गिरिस हे दू दिन भइया, रझरझ रझरझ पानी।
अब नइ बरसत हावय बादर, पिछड़त हवय किसानी।।

आस जगा के बादर मन हा, बिन बरसे हे जावत।
देखत हावय लोग खेत के, पौधा सब अइलावत।।

आज करत हे जेन किसानी, अब्बड़ हे पछतावत।
भागत हावय करिया बादर, ओमन ला चिढ़हावत।।

तरसावत हे बड़ किसान ला, बैरी बनके बादर।
बने बेर में नइ बरसय गा, धोखा देथे काबर।।

★ विषय - कठवा★

कठवा होथे अबड़ काम के, झन गा कमती मानव।
मनखे बर हे बड़ उपयोगी, गुण ला येकर जानव।।

किसम-किसम के कठवा होथे, जइसे शीशम साजा।
सुग्घर-सुग्घर जेकर बनथें, खिड़की अउ दरवाजा।।

कठवा ले भगवान बनाके, मनखे पूजा करथे।
बने भावना मन मा आथे, जिनगी उखर सुधरथे।।

कठवा ले संगीत निकलथे, जब ये बनथे बाजा।
ढोल बाँसुरी माँदर के धुन, सुग्घर लगथे राजा।।

कठवा के घर हरय सुरक्षित, वैज्ञानिक मन कहिथे।
बच जाथे भूकंप आय ले, ऐमा जे हा रहिथे।।

कठवा ले ही बनथे नाँगर, अउ गा बइलागाड़ी।
सबो किसनहा बने तभे तो, करथे खेतीबाड़ी।।

सुग्घर-सुग्घर मूर्ति बनाके, कलाकार मन येकर।
जीव डार दे हे कठवा मा, देख लागथे अइसे।

● विषय - जनसंख्या ●

जनसंख्या बड़ बाढ़त हावय, कमती हे संसाधन।
अलकरहा उपयोग करत हे, बिन सोचे मनखेमन।।

बेटा के चाहत मा मनखे, जब परिवार बढ़ाथे।
बाढ़ जथे जब घर के खर्चा, तब अब्बड़ पछताथे।।

बेटी ला बेटा कस मानयँ, झन परिवार बढ़ावयँ।
पढ़ा लिखा के सुग्घर उनकर, जिनगी घला बनावयँ।।

कहाँ मिलत हे रोजगार गा, जनसंख्या के सेती।
बेचावत घर-द्वार सबो के, कम होगे हे खेती।।

काबू मा रइही जनसंख्या, जाग जही तब सबझन।
अउ अपनाही मनखे मन हा, जब परिवार नियोजन।।
◆ श्लेष चन्द्राकर ◆

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