छत्तीसगढ़ी हरिगीतिका छंद
(1)
लेवत हवयँ रिश्वत अबड़, कतको अधर्मी मन कका।
घूमत हवयँ खुल्ला इहाँ, कतको कुकर्मी मन कका।।
एकोकनिक डर नइ हवय, ये लागथे कानून के।
सस्ता रखें हे मोल उँन, का आदमी के खून के।।
(2)
लूटत गरीबन ला अबड़, हे आज रिश्वतखोर मन।
ये नीच बूता देखके, जाथे बइठ जी मोर मन।।
रिश्वत बिना होवय नहीं, कोनो बखत मा काम जी।
बड़ तंग करना दीन ला, होगे इहाँ अब आम जी।।
(3)
(मात्रा बाँट- 2212 2122 2, 212 2 212)
नाली बनाबो हर गली मा, गोठ सब ये मान लौ।
मलमूत ला ओमा बहाबो, आपमन सब ठान लौ।।
सुग्घर हमर तब गाँव बनही, दूर जाही रोग मन।
हाँसी-खुशी जिनगी बिताही, स्वस्थ रइही लोग मन।।
(4)
जम्मो शहर अउ गाँव बर, नाली जिनिस बड़ काम के।
मल ला बहाके लेगथे, समझौ नही बस नाम के।।
नाली बिना बरसात मा, पानी गली मा रुक जही।
बड़ही जिकर ले गंदगी, अउ रोग कतको फैलही।।
(5)
तन मन लगाके काम कर, तँय बेच झन ईमान ला।
मिहनत करे ले फर सदा, मिलथे बने इंसान ला।।
जे याद कर भगवान ला, करथे अपन सब काम गा।
सम्मान पाथे ओ जगत मा, होथे उँखर बड़ नाम गा।।
(6)
शास्त्री बने नेता रिहिस, जे सत्य के बाना धरिस।
जे देश के परधान बन, सब काम ला सुग्घर करिस।।
सोचिस सदा ये देश बर, जग मा बढ़ाइस शान ला।
संसार मा जब तक जियिस, बेचिस नहीं ईमान ला।
(7)
डेंगू असन जर झन धरयँ, कोनो इहाँ इंसान ला।
ये रोग अलकरहा हरे, जे ले सकत हे जान ला।।
मच्छर इँखर वाहक हरे, पनपन कभू झन दव सगा।
घर साफ सुथरा राखहूँ, तब रोग ला देहू भगा।।
(8)
हर योजना बर भेजथे, पइसा अबड़ सरकार हा।
काबर तभो ले नइ खुलय, हे बंद उन्नति द्वार हा।।
जे मन बुढ़े हावय इहाँ, बहुतेच भ्रष्टाचार मा।
लूटत हवय जी देश ला, दव डार कारागार मा।।
(9)
लव सेब केरा संतरा, बीमार तन हो जाय ले।
सेहत सुधरही आपके, जल्दी कका फल खाय ले।।
ताकत बढ़ाथे घात जी, येमा बिटामिन बड़ रथें।
फल तन ल रखथे गा बने, ये बैद्य डाक्टर मन कथें।।
(10)
झन पेड़ काटव रोड के, मिलही कहाँ ले छाँव गा।
जम्मो चलइया लोग के, बहुतेच जरही पाँव गा।।
धुर्रा उड़ाही घात गा, चलना कठिन बड़ हो जही।
रइही बने जी रोड हा, जब पेड़ मन बाँचे रही।।
(11)
जंगल नँदावत हे सबो, कम जानवर मन होत हे।
कुछु नइ करत हे देखके, शासन इहाँ का सोत हे।।
मनखे सुवारथ मा अपन, गलती अबड़ हावयँ करत।
रद्दा चलत हे नाश के, ये जान के नइ हे डरत।।
(12)
राफेल सुरखोई असन, हावय लड़ाकू यान जी।
हे वायुसेना के हमर, जग मा अलग पहिचान जी।।
बैरी पड़ोसी देस सन, जब घात झगरा मातही।
तब ये दुनो ला देखके, सेना उँखर गा भागही।।
(13)
चौदह बरस बनवास कर, लहुटिस अयोध्या राम जी।
तब ले मनाथें सब परब, जेकर दिवाली नाम जी।।
घर-घर जलाथें दीप जी, सब ये खुशी के बात मा।
दिखथे उजाला हर जघा, कातिक अमावस रात मा।।
(14)
मानिस ददा के गोठ ला, छोड़िस अयोध्या धाम जी।
सीता लखन के साथ मा, बनवास गिस श्रीराम जी।।
तकलीफ झेलिस हे उहाँ, चौदह बरस ले घात गा।
गिन-गिन बिताइन उँन उहाँ, मुसकुल भरे दिन रात गा।।
(15)
कहिथे परब हे दशहरा, सत ले करव सब प्रीत गा।
संदेश ये देथे बने, होथे धरम के जीत गा।।
रावण अधर्मी हा मरिस, श्री राम जी के बान ले।
अंजाम होथे जी इही, अइबी सबो के जान ले।।
(16)
रावण करिस सीता हरण, भागी बनिस गा पाप के।
ओहा बलालिस तीर मा, जी काल अपने आप के।।
प्रभु राम ओला मार के, तोड़िस हवय अभिमान ला।
हे दसहरा पावन परब, सुमिरन करव भगवान ला।।
(17)
केशव सुदामा के असन, सुग्घर मितानी अब कहाँ।
बुढ़ गे हवयँ जी स्वार्थ मा, मनखे सबोझन अब इहाँ।।
बूता रहत ले आज के, मनखे रथे गा संग मा।
बूता निकल जाथे तहां, आथे पुराना रंग मा।।
(18)
ओकर मितानी हे बने, जे संग मुसकुल मा रथे।
मारय लबारी जी नहीं, अउ गोठ ला सत के कथे।।
जे संग छइँहा कस रथे, धोखा कभू देवय नहीं।
अउ काम आथे ता कभू, बदला म कुछु लेवय नहीं।।
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