छत्तीसगढ़ी चौपाई छंद
*चौपाई छंद*
*गुरु घासीदास*
संत शिरोमणि घासी बाबा। कहय एक हे कांशी-काबा।।
जात-पात ला ओ नइ जानय। एक सबो मनखे ला मानय।।
गुरु बाबा के हरय जनम दिन, सुरता रखहूँ येला सबझिन।।
बगराना हे पबरित बानी। सुना सबो ला उँखर कहानी।।
बानी मा मँदरस घोलय गा। संत बबा सुग्घर बोलय गा।।
सदा नीक ओ गोठ किहिस हे। सत के पहरादार रिहिस हे।।
सच्चा सेवक ओ ईश्वर के। रिहिस विरोधी आडंबर के।।
इहाँ पंथ सतनाम चलाइन। मानवता के पाठ पढ़ाइन।।
भेदभाव सब छोड़व बोलिन। मनखे मन के आँखी खोलिन।
छुआछूत ला रोग बताये। दीन-दुखी ला गला लगाये।।
एक असन ओ सबला मानय। मया सबो ला देबर जानय।।
मानवता के नेक पुजारी। रिहिस बबा के महिमा भारी।।
*श्लेष चन्द्राकर*
*चौपाई छंद*
ऊँच नीच के भेद मिटावव। अब समाज मा समता लावव।।
आगे हावय नवा जमाना। छोड़व भइया रीत पुराना।।
सीखव सबला ले के चलना। छोड़व कखरो भाव कुचलना।।
दव वंचित मन ला अब अवसर। जिनगी गुजरय उखरो सुग्छर।।
एक घाट के पानी पीयव। जम्मों जुरमिल जिनगी जीयव।।
छुआछूत के भाव मिटाही। इहां तभे गा समता आही।।
कहाँ लड़ेबर धरम सिखाथे। एक रहव सब ग्रंथ बताथे।।
आपस के अब बैर भुलावव। आघू बढ़के हाथ मिलावव।।
दीन-दुखी ला गला लगावव। सच्चा मनखे हरव बतावव।।
शोषित मनके बनव सहारा। पोंछव उनकर आँसू खारा।।
*श्लेष चन्द्राकर*
*चौपाई छंद*
कभू नशा झन करबे राजा। हरे नाश के ये दरवाजा।।
नशा करइया बड़ पछताथे। जिनगी ला ओ नरक बनाथे।।
दारू गाँजा तँय झन पीबे। बने इहाँ तब लंबा जीबे।।
येमन तन ला पातर करथे। इखँर पियइया जल्दी मरथे।।
गुटखा माखुर जे मन खाथे। ओकर मन के दाँत पिराथे।।
मुँहू पोचवा उनकर होथे। अपन भूल मा अब्बड़ रोथे।।
घर बर्बाद नशा हा करथे। टूट जथे परिवार बिखरथे।।
आज अभी ले किरिया खाले। नशा पान ले दुरी बनाले।।
*श्लेष चन्द्राकर*
*चौपाई छंद*
जियत लोग मन स्वार्थी बनके। पाटय नइ अब गड्ढा खनके।।
अपन भलाई बस देखत हे। दूसर घर कचरा फेंकत हे।।
नाश करत हे जंगल मनके। अबड़ तपत हे अइबी बनके।।
अपन फायदा ला सोचत हे। नवा पेड़ गा नइ बोवत हे।।
जघा-जघा उद्योग लगाथे। घात धूल धुँगिया फैलाथे।।
करत नदी के पानी मइला। मरत जेन ला पीके बइला।।
डार यूरिया खातू अड़बड़। करत खेत ला खुद के गड़बड़।।
अबड़ कीटनाशक डारत हे। चिरई चुरगुन ला मारत हे।।
*श्लेष चन्द्राकर*
★ चौपाई छंद ★
मानवता ला भूलत मानव। आज बनत हावय गा दानव।।
दीन दुखी ला अबड़ सताथे। लूटपाट कर नोट कमाथे।।
देखत हन संस्कार भुलावत। लइका मन ला अब इतरावत।।
माँ बाबू मन ला तरसाथे। दूसर मन मा रकम लुटाथे।।
मनखे भूलत हे सब नाता। खुद ला समझत हवय विधाता।।
ईश्वर ला भी कहाँ डरत हे। मनमाना अब काम करत हे।।
लालच मा होगे हे अंधा। आज करत हे गोरखधंधा।।
अपन सुवारथ ला देखत हे। सबके जिनगी ले खेलत हे।।
आज घोर कलजुग हा आगे। घडा पाप के अबड़ भरागे।।
लगथे अब तो परलय आही। किस्सा मा दुनिया रह जाही।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
दुष्कर्मी मन पाप करत हें। नारी मन के चीर हरत हें।।
गलत करत हें मजा चखावव। पकड़व उन ला सजा दिलावव।।
भुला जथें सब अत्याचारी। देवी जइसे होथे नारी।।
मारव भइया अइसे सोंटा। काँपय उनकर मन के पोटा।।
★ चौपाई छंद ★
★ विषय - मुर्रा ★
गरम-गरम जब मिलथे मुर्रा। खाथन ओला उत्ता-धुर्रा।।
तिली तेल सँग घात सुहाथे। जुड़ मौसम मा येला खाथे।।
सबला मुर्रा हा जी भाथे। गाँव-गाँव मा फोड़े जाथे।।
येकर ले ही भेल बनाथे। सबो शहरिया मन हा खाथे।।
सोच समझ के मुर्रा खाहू। बने देख के झन ललचाहू।।
उसना चाँउर के ये बनथे। अति खाये ले पेट ह तनथे।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
★ चौपाई छंद ★
★ विषय- जाड़ ★
जाड़ा के जब मौसम आथे। जम्मो भाजी साग सुहाथे।
पालक गोभी मटर टमाटर। खाये बर गा मिलथे गाजर।।
हटरी मा बड़ सब्जी आथे। देख जेन ला जी ललचाथे।।
अइसे लगथे सबो बिसालन। सब्जी के भंडार लगालन।।
धनिया मेथी बड़ ममहाथे। सबो साग के स्वाद बढ़ाथे।
जेकर सब आनंद उठाथन। बने परोसा लेके खाथन।।
चटनी पीसे जाथे घर-घर। अउ बनथे रोटी अंगाकर।
सब सलाद के मजा उठाथन। सुग्घर सेहत अपन बनाथन।।
हरा साग सब्जी सब खावव। मौसम के आनंद उठावव।
सेहत बनथे जी जाड़ा मा। ताकत आथे जी हाड़ा मा।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
हरय गरीबन बर करलाई। जाड़ महीना हे दुखदाई।।
रहय नहीं जिनकर कर कंबल। उनकर करथें जाड़ अमंगल।।
चलत हवा जुड़ रहिथे सरसर। देहें काँपत रहिथे थरथर।।
चिरहा कपड़ा पहिरे रहिथें। घात रात भर जाड़ा सहिथें।
लहू जमा देथे गा जाड़ा। अकड़ जथे जी उनकर हाड़ा।।
आतिस झन गा जाड़ महीना। ये मुसकुल कर देथे जीना।।
जब गरीब ला जाड़ सताथे। ताप गोरसी प्रान बचाथे।।
रहय नहीं गा अउ कुछु चारा। आगी बनथे उँकर सहारा।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
★ चौपाई छंद ★
★ विषय- भोजन ★
कमजोरी ला भोजन हरथे। तन मा भइया ताकत भरथे।।
बने साग सब्जी ला खावव। रोग रहित तन अपन बनावव।।
काजू किसमिस खाना चाही। तभे बदन मा मांस भराही।।
सूखा मेवा जेहा खाथे। बलशाली ओहर हो जाथे।।
बुद्धि बढ़ाथे गोरस जानव। सुबह शाम हे पीना ठानव।।
दही-घीव ला जेहा खाथे। ओ शरीर ले रोग भगाथे।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
करबे भोजन शाकाहारी। बनबे तँय झन मांसाहारी।।
सुग्घर हरियर सब्जी खाबे। कुकरी मछरी झन रँधवाबे।।
जेहा करथे सात्विक भोजन। चंगा रहिथे ओकर तन-मन।।
जेन तामसिक भोजन करथे। रोग बड़े गा ओला धरथे।।
जीव मार के जेहा खाथे। ओहा बड़ पापी कहिलाथे।।
कभू मांस के सेवन झन कर। सादा खाना खा जीवन भर।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
★ विषय - वोट ★
★ चौपाई छंद ★
वोट करे बर सबझन जावव। लोकतंत्र के मान बढ़ावव।।
बने चुनव सरकार अपन गा। जनता के जे करे जतन गा।।
मोल वोट के पहिचानव जी। सबला देना हे ठानव जी।।
वोट डार के पहिली आहू। अपन काम मा ताहन जाहू।।
अपन वोट के शक्ति दिखावव। लोकतंत्र ला पोठ बनावव।।
वोट करव सब बहिनी-भाई। हमर इही मा हवय भलाई।।
वोट बेच के पाप करव झन। पइसा फोकट चार धरव झन।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
★ विषय - दउँरी/बेलन ★
★ चौपाई छंद ★
होवय पहिली धान मिंजाई। बेलन ले बड़ सुग्घर भाई।।
होगिस येकर चलन पुराना। हार्वेस्टर के अइस जमाना।।
जल्दी मा अब मनखे रहिथे। हार्वेस्टर ला सुविधा कहिथे।।
अपन इही मा धान मिंजावत। बेलन हा जी आज नँदावत।।
मनखे पहिली धान लुवातिस। ओकर खरही घात रचातिस।।
सितला माँ ला धान चढ़ावय। हूम देय के बाद मिंजावय।।
दउँरी बेलन जब चलवावय। पोठ धान मनखे मन पावय।।
ये उदीम अब कोन कराथे। जुन्ना दिन हा सुरता आथे।।
बेलन चलतिस पैरा मिलतिस। तेकर सबझन खरही रचतिस।।
घर मा सबके पैरा राहय। गरुवा मन हा तेला खावय।।
दिखय नहीं गा अब तो बेलन। बचपन मा हम जेमा खेलन।।
अब हार्वेस्टर टेक्टर आगे। सुग्घर जुन्ना जिनिस नँदागे।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
★ विषय - अँगना ★
★ चौपाई छंद ★
घर ला राखव उज्जर-उज्जर। जेमा राहय अँगना सुग्घर।।
अबड़ काम ये हा गा आथे। घर मा मनखे तभे बनाथे।।
तुलसी चौरा घर-घर रहिथे।
जाड़ा के मौसम आथे तब। घाम सेंकथन अँगना मा सब।।
कुरिया ले खटिया ला लाथन। जेमा बइठे बखत बिताथन।।
★ विषय - गुलाब के फूल ★
★ चौपाई छंद ★
बड़ गुलाब के फूल सुहाथे। अँगना के ये शान बढ़ाथे।।
खिलथे काँटा के डारा मा। दिखथे गा पारा-पारा मा।।
रथे फूल ये बड़ सुन्दर गा। खिले रथे ये सबके घर गा।।
काम पंखुड़ी येकर आथे। जेकर ले गुलकंद बनाथे।।
रंग गुलाबी सादा नीला। रथे लाल अउ काला पीला।।
फूल खास ये बड़ ममहाथे। मनखे मन ला अबड़ लुभाथे।।
जेमन रखथें मया मितानी। ओमन देथें फूल निशानी।।
तब गुलाब के फूल बिसाथें। देके उँन ला मया जताथें।।
फूल बड़ा ये होथे सुंदर। सबो देखथें येला मन भर।।
लान-लान के कलम लगाथें। बखरी ला सब अपन सजाथें।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
★ विषय - गुल्ली डंडा ★
★ चौपाई छंद ★
गुल्ली डंडा लइका पन के। बड़ सुग्घर खेल हमर मन के।।
जेकर हमन बने खेलइया। सुरता अब्बड़ आथे भइया।।
बने काट के लौठी लावन। गुल्ली डंडा अपन बनावन।।
खेलन संझा के होवत ले। दाम पदावन गा रोवत ले।।
कतको झन के मुड़ फोड़े हन। फेर कहाँ खेले छोड़े हन।।
खेल खेल के वापस आवन। घर मा अब्बड़ गारी खावन।।
★ श्लेष चन्द्राकर ★
Comments
Post a Comment