कुण्डलिया श्लेष चन्द्राकर के भाग-२
कुण्डलिया छंद
(1)
आर्थिक मंदी देश की, चिंता वाली बात।
मनन करेंगे लोग तब, सुधरेंगे हालात।।
सुधरेंगे हालात, पुनः रौनक आयेगी।
मुखड़ों पर मुस्कान, युक्ति नव लौटायेगी।।
इसपर कहता ‘श्लेष', न हो राजनीति गंदी।
मिलजुलकर सब लोग, हटाएँ आर्थिक मंदी।।
(2)
सरकारी संपत्ति का, करते जो नुक्सान।
होते ऐसे लोग तो, उत्पाती शैतान।।
उत्पाती शैतान, कहाँ शह पाकर डरते।
अपना बेच विवेक, कृत्य पशुओं सा करते।।
‘श्लेष’ उपद्रवी लोग, हानि पहुँचाते भारी।
कार्यालय बस रेल, जला देते सरकारी।।
(3)
बातें बड़ी न कीजिए, करिए भ्राता काज।
यदि करना है चाहते, सबके दिल पर राज।।
सबके दिल पर राज, करें कुछ अच्छा करके।
और लुटाए प्रेम, सभी जन पर जी भरके।।
कहे श्लेष नादान, कटेंगी अच्छी रातें।
श्रम कर तू भरपूर, छोड़ बेमतलब बातें।।
आर्थिक मंदी देश की, चिंता वाली बात।
मनन करेंगे लोग तब, सुधरेंगे हालात।।
सुधरेंगे हालात, पुनः रौनक आयेगी।
मुखड़ों पर मुस्कान, युक्ति नव लौटायेगी।।
इसपर कहता ‘श्लेष', न हो राजनीति गंदी।
मिलजुलकर सब लोग, हटाएँ आर्थिक मंदी।।
(2)
सरकारी संपत्ति का, करते जो नुक्सान।
होते ऐसे लोग तो, उत्पाती शैतान।।
उत्पाती शैतान, कहाँ शह पाकर डरते।
अपना बेच विवेक, कृत्य पशुओं सा करते।।
‘श्लेष’ उपद्रवी लोग, हानि पहुँचाते भारी।
कार्यालय बस रेल, जला देते सरकारी।।
(3)
बातें बड़ी न कीजिए, करिए भ्राता काज।
यदि करना है चाहते, सबके दिल पर राज।।
सबके दिल पर राज, करें कुछ अच्छा करके।
और लुटाए प्रेम, सभी जन पर जी भरके।।
कहे श्लेष नादान, कटेंगी अच्छी रातें।
श्रम कर तू भरपूर, छोड़ बेमतलब बातें।।
(४)
माली नित तन-मन लगा, सींचे अपना बाग।
रहता है उसको बहुत, पौधों से अनुराग।।
पौधों से अनुराग, लगाकर है वह जीता।
करता अपना कार्य, तभी है खाता-पीता।।
जिसके जिम्मे श्लेष, बगीचे की रखवाली।
कर्मवीर इंसान, नाम है उसका माली।।
(५)
पानी कम होने लगा, देखो चारों ओर।
जल संरक्षण पर बहुत, देना होगा जोर।।
देना होगा जोर, करे कैसे भरपाई।
कारण इसका ढ़ूँढ, समस्या यह क्यों आई।।
कहे श्लेष कर जोड़, करो मत अब मनमानी।
बूँद-बूँद बहुमूल्य, बचाना होगा पानी।।
(६)
काया माटी में मिले, फिर भी करें गुमान।
जानबूझकर क्यों मनुज, बनता है अनजान।।
बनता है अनजान, हमेशा अकड़ दिखाता।
मिले अगर कमजोर, उसे है बहुत सताता।।
अधिक समय तक श्लेष, नहीं टिकती छल-छाया।
करना छोड़ घमंड, मान है नश्वर काया।।
(७)
जिसकी ऊँची है पहुँच, अवसर उसके पास।
जो असली हकदार है, रहता बहुत उदास।।
रहता बहुत उदास, भाग्य पर अपने रोता।
जागे सारी रात, कहाँ अच्छे से सोता।।
सदा सोचता श्लेष, चाल ये ओछी किसकी।
उसे दिलाये काम, नहीं क्षमता है जिसकी।।
(८)
बचने भीषण ठंड से, करते विविध उपाय।
धूप, आग सब सेंकतें, पीते कहवा, चाय।।
पीते कहवा, चाय, यही गर्माहट लाती।
वस्त्र पहनते गर्म, शीत ऋतु असर दिखाती।।
‘श्लेष' कुटिल षड़यंत्र, ठंड जब लगती रचने।
युक्ति भिड़ाते लोग, कहर से इसके बचने।।
(९)
खुशबू फैले कर्म की, रख ऐसा व्यक्तित्व।
करना है सत्कर्म तो, मानव का दायित्व।।
मानव का दायित्व, दिखाना है मानवता।
शामिल रहे सदैव, आचरण में सज्जनता।।
सदा फैलती श्लेष, मलिनता से ही बदबू।
रखकर निर्मल सोच, बिखेरे जग में खुशबू।।
(१०)
जश्न मनाना हो कभी, आये या त्यौहार।
सेवन करता मांस का, मनुज जीव को मार।।
मनुज जीव को मार, चाव से उसको खाता।
पीता खूब शराब, और हुड़दंग मचाता।।
बात श्लेष की मान, सीख ले दया दिखाना।
मूक-जीव को मार, छोड़ दे जश्न मनाना।।
(११)
आँसू पोंछ गरीब की, गले लगा ले और।
पीड़ा सह वह जी रहा, करे बात पर गौर।।
करे बात पर गौर, सुधारें उसकी हालत।
पाये जग में मान, सहे मत और जलालत।।
कहे ‘श्लेष' नादान, काम यह करना धाँसू।
रोता दिखे गरीब, पोंछना उसके आँसू।।
(१२)
मेला लगता देश के, हर कोने में खास।
लोगों का इससे जुड़ा, आस्था अरु विश्वास।।
आस्था अरु विश्वास, उमंगों की है थाती।
परंपरा यह देख, फैलती सबकी छाती।।
लेते हम आनंद, देख कर ठेलमठेला।
खूब उमड़ती भीड़, कहीं लगता जब मेला।।
श्लेे चन्द्रा
माली नित तन-मन लगा, सींचे अपना बाग।
रहता है उसको बहुत, पौधों से अनुराग।।
पौधों से अनुराग, लगाकर है वह जीता।
करता अपना कार्य, तभी है खाता-पीता।।
जिसके जिम्मे श्लेष, बगीचे की रखवाली।
कर्मवीर इंसान, नाम है उसका माली।।
(५)
पानी कम होने लगा, देखो चारों ओर।
जल संरक्षण पर बहुत, देना होगा जोर।।
देना होगा जोर, करे कैसे भरपाई।
कारण इसका ढ़ूँढ, समस्या यह क्यों आई।।
कहे श्लेष कर जोड़, करो मत अब मनमानी।
बूँद-बूँद बहुमूल्य, बचाना होगा पानी।।
(६)
काया माटी में मिले, फिर भी करें गुमान।
जानबूझकर क्यों मनुज, बनता है अनजान।।
बनता है अनजान, हमेशा अकड़ दिखाता।
मिले अगर कमजोर, उसे है बहुत सताता।।
अधिक समय तक श्लेष, नहीं टिकती छल-छाया।
करना छोड़ घमंड, मान है नश्वर काया।।
(७)
जिसकी ऊँची है पहुँच, अवसर उसके पास।
जो असली हकदार है, रहता बहुत उदास।।
रहता बहुत उदास, भाग्य पर अपने रोता।
जागे सारी रात, कहाँ अच्छे से सोता।।
सदा सोचता श्लेष, चाल ये ओछी किसकी।
उसे दिलाये काम, नहीं क्षमता है जिसकी।।
(८)
बचने भीषण ठंड से, करते विविध उपाय।
धूप, आग सब सेंकतें, पीते कहवा, चाय।।
पीते कहवा, चाय, यही गर्माहट लाती।
वस्त्र पहनते गर्म, शीत ऋतु असर दिखाती।।
‘श्लेष' कुटिल षड़यंत्र, ठंड जब लगती रचने।
युक्ति भिड़ाते लोग, कहर से इसके बचने।।
(९)
खुशबू फैले कर्म की, रख ऐसा व्यक्तित्व।
करना है सत्कर्म तो, मानव का दायित्व।।
मानव का दायित्व, दिखाना है मानवता।
शामिल रहे सदैव, आचरण में सज्जनता।।
सदा फैलती श्लेष, मलिनता से ही बदबू।
रखकर निर्मल सोच, बिखेरे जग में खुशबू।।
(१०)
जश्न मनाना हो कभी, आये या त्यौहार।
सेवन करता मांस का, मनुज जीव को मार।।
मनुज जीव को मार, चाव से उसको खाता।
पीता खूब शराब, और हुड़दंग मचाता।।
बात श्लेष की मान, सीख ले दया दिखाना।
मूक-जीव को मार, छोड़ दे जश्न मनाना।।
(११)
आँसू पोंछ गरीब की, गले लगा ले और।
पीड़ा सह वह जी रहा, करे बात पर गौर।।
करे बात पर गौर, सुधारें उसकी हालत।
पाये जग में मान, सहे मत और जलालत।।
कहे ‘श्लेष' नादान, काम यह करना धाँसू।
रोता दिखे गरीब, पोंछना उसके आँसू।।
(१२)
मेला लगता देश के, हर कोने में खास।
लोगों का इससे जुड़ा, आस्था अरु विश्वास।।
आस्था अरु विश्वास, उमंगों की है थाती।
परंपरा यह देख, फैलती सबकी छाती।।
लेते हम आनंद, देख कर ठेलमठेला।
खूब उमड़ती भीड़, कहीं लगता जब मेला।।
श्लेे चन्द्रा
(१३)
दो पल भी मिलता नहीं, नारी को आराम।
करने पड़ते है उसे, घर दफ्तर के काम।।
घर दफ्तर के काम, पूर्ण निष्ठा से करती।
दिन भर रहती व्यस्त, किन्तु वह आह न भरती।।
हालत जैसी आज, रहेगी वैसे कल भी।
राहत की वह साँस, नहीं लेती दो पल भी।।
(१४)
तालाबंदी काल में, घर में रहना ठीक।
शासन का सहयोग कर, करिए काम सटीक।।
करिए काम सटीक, हार कोरोना जाये।
मन से करें प्रयास, लौट अच्छे दिन आये।।
नियम तोड़कर आप, करो मत हरकत गंदी।
जनता के हित हेतु, आज है तालाबंदी।।
(१५)
नारी स्वजनों के लिए, होती जीवन रेख।
काम सभी चुटकी बजा, कर देती है देख।।
कर देती है देख, दूर वह मुश्किल सारे।
चलता घर परिवार, उसी के कृपा सहारे।।
निर्णय लेती खास, सदा जो घर हितकारी।
घर लगता वीरान, याद रखिए बिन नारी।।
(१६)
न्यायालय में टूटती, दीन-हीन की आस।
न्याय व्यवस्था पर करें, हम कैसे विश्वास।।
हम कैसे विश्वास, करेंगे ऐसे कैसे।
मिले नहीं जब न्याय, खर्च कर लाखों पैसे।।
कहे श्लेष नादान, दंड भी दे दंडालय।
चुस्ती से ले काम, यहाँ के सब न्यायालय।
(१७)
कोरोना को भागने, कर देंगे मजबूर।
होगी जल्दी देखना, बड़ी मुसीबत दूर।।
बड़ी मुसीबत दूर, करेंगे उससे लड़कर।
पायेंगे हम लक्ष्य, साथियों जिद पे अड़कर।।
चलो करें प्रतिकार, छोड़कर रोना-धोना।
हमसे खाने मात, विवश होगा कोरोना।।
(१८)
पायेंगे भय पर विजय, मन में रखें विचार।
होगी निश्चित देखना, कोरोना की हार।।
कोरोना की हार, जागरुकता है जाने।
विज्ञ जनों की बात, सभी अक्षरशः माने।।
पहनेंगे यदि मास्क, स्वच्छता अपनायेंगे।
कोरोना को मात, तभी हम दे पायेंगे।।
(१९)
कोरोना के खौफ से, सहमे जग के लोग।
बनकर आया काल है, यह संक्रामक रोग।।
यह संक्रामक रोग, महामारी है घोषित।
दिखते हैं बेहाल, लोग जो इससे शोषित।।
इसका नहीं इलाज, चले ना जादू-टोना।
मचा रहा आतंक, जहाँ पहुँचे कोरोना।।
(२०)
चादर फटी गरीब की, करती खड़े सवाल।
उसके जीवन का कहो, सुधरे कैसे हाल।।
सुधरे कैसे हाल, खुशी कब उसे मिलेगी।
जीवन में अँधियार, कभी क्या धूप खिलेगी।।
अपनाएगा कौन, जगत में उसको सादर।
होगी उसे नसीब, नई सुंदर कब चादर।।
(२१)
सारे जग में छा रहा, अब तो संकट घोर।।
कोरोना का वायरस, फैल रहा चहुँओर।
फैल रहा चहुँओर, सभी रहते दहशत में।
बिगड़ा है माहौल, जान आई आफत में।।
मास्क लगाकर लोग, निकलते डर के मारे।
खोज रहें उपचार, चिकित्सक जग के सारे।।
दो पल भी मिलता नहीं, नारी को आराम।
करने पड़ते है उसे, घर दफ्तर के काम।।
घर दफ्तर के काम, पूर्ण निष्ठा से करती।
दिन भर रहती व्यस्त, किन्तु वह आह न भरती।।
हालत जैसी आज, रहेगी वैसे कल भी।
राहत की वह साँस, नहीं लेती दो पल भी।।
(१४)
तालाबंदी काल में, घर में रहना ठीक।
शासन का सहयोग कर, करिए काम सटीक।।
करिए काम सटीक, हार कोरोना जाये।
मन से करें प्रयास, लौट अच्छे दिन आये।।
नियम तोड़कर आप, करो मत हरकत गंदी।
जनता के हित हेतु, आज है तालाबंदी।।
(१५)
नारी स्वजनों के लिए, होती जीवन रेख।
काम सभी चुटकी बजा, कर देती है देख।।
कर देती है देख, दूर वह मुश्किल सारे।
चलता घर परिवार, उसी के कृपा सहारे।।
निर्णय लेती खास, सदा जो घर हितकारी।
घर लगता वीरान, याद रखिए बिन नारी।।
(१६)
न्यायालय में टूटती, दीन-हीन की आस।
न्याय व्यवस्था पर करें, हम कैसे विश्वास।।
हम कैसे विश्वास, करेंगे ऐसे कैसे।
मिले नहीं जब न्याय, खर्च कर लाखों पैसे।।
कहे श्लेष नादान, दंड भी दे दंडालय।
चुस्ती से ले काम, यहाँ के सब न्यायालय।
(१७)
कोरोना को भागने, कर देंगे मजबूर।
होगी जल्दी देखना, बड़ी मुसीबत दूर।।
बड़ी मुसीबत दूर, करेंगे उससे लड़कर।
पायेंगे हम लक्ष्य, साथियों जिद पे अड़कर।।
चलो करें प्रतिकार, छोड़कर रोना-धोना।
हमसे खाने मात, विवश होगा कोरोना।।
(१८)
पायेंगे भय पर विजय, मन में रखें विचार।
होगी निश्चित देखना, कोरोना की हार।।
कोरोना की हार, जागरुकता है जाने।
विज्ञ जनों की बात, सभी अक्षरशः माने।।
पहनेंगे यदि मास्क, स्वच्छता अपनायेंगे।
कोरोना को मात, तभी हम दे पायेंगे।।
(१९)
कोरोना के खौफ से, सहमे जग के लोग।
बनकर आया काल है, यह संक्रामक रोग।।
यह संक्रामक रोग, महामारी है घोषित।
दिखते हैं बेहाल, लोग जो इससे शोषित।।
इसका नहीं इलाज, चले ना जादू-टोना।
मचा रहा आतंक, जहाँ पहुँचे कोरोना।।
(२०)
चादर फटी गरीब की, करती खड़े सवाल।
उसके जीवन का कहो, सुधरे कैसे हाल।।
सुधरे कैसे हाल, खुशी कब उसे मिलेगी।
जीवन में अँधियार, कभी क्या धूप खिलेगी।।
अपनाएगा कौन, जगत में उसको सादर।
होगी उसे नसीब, नई सुंदर कब चादर।।
(२१)
सारे जग में छा रहा, अब तो संकट घोर।।
कोरोना का वायरस, फैल रहा चहुँओर।
फैल रहा चहुँओर, सभी रहते दहशत में।
बिगड़ा है माहौल, जान आई आफत में।।
मास्क लगाकर लोग, निकलते डर के मारे।
खोज रहें उपचार, चिकित्सक जग के सारे।।
(२२)
वर्षा आती जब कभी, मिलता अति आनंद।
ऋतु है यह अति पावनी, करते लोग पसंद।।
करते लोग पसंद, खूब हैं लुत्फ उठाते।
मस्ती में सब झूम, गीत सावन के गाते।।
बूँदों की बौछार, सभी को हैं हर्षाती।
सुख देने प्रतिवर्ष, धरा पर वर्षा आती।।
(२३)
पढ़ना लिखना सीखकर, नेक बनूँ इंसान।
ज्ञान दायिनी शारदे, देना तुम वरदान।।
देना तुम वरदान, करूँगा सेवा तेरी।
चलूँ धर्म की राह, रहेगी कोशिश मेरी।।
मातु मुझे हर हाल , भाग्य अपना है गढ़ना।
देना हरदम साथ, मुझे है लिखना पढ़ना।।
(२४)
अच्छी बारिश हो रही, खुश है बहुत किसान।
बोकर अब निश्चिंत है, खेतों में वह धान।।
खेतों में वह धान, उगाता खूब बढ़ाता।
और उपज को बेच, लिए सब कर्ज चुकाता।।
रब से वह हर बार, करे बस यही गुजारिश।।
करना मुझे निहाल, गिरा के अच्छी बारिश।।
(२५)
नेता बड़बोले सभी, करते बस बकवास।
उनसे तो होता नहीं, कार्य कभी कुछ खास।।
कार्य कभी कुछ खास, यहाँ वे कर दिखलाते।
जन से नि: संदेह, सदा ही इज्जत पाते।।
विश्व बैंक से कर्ज, देश अपना कम लेता।
निष्ठापूर्वक कार्य, अगर करते सब नेता।।
(२६)
कैसे हो घर वापसी, चिंता वाली बात।
सोच-सोच मजदूर हैं, व्यथित सभी दिन-रात।।
व्यथित सभी दिन-रात, सहायक कौन बनेगा।
आकर उनके पास, समस्या दूर करेगा।।
पहुँचा दे जो श्लेष, गाँव में जैसे-तैसे।।
किया उन्हें लाचार, महामारी ने कैसे।।
(२७)
बढ़ता दिन-दिन और है, पति-पत्नी का प्यार।
भाव समर्पण का बनें, रिश्ते का आधार।।
रिश्ते का आधार, भरोसे की ताकत है।
कैसा भी हो दौर, न कम होती चाहत है।।
जब तक रहते साथ, प्यार का पारा चढ़ता।
पल-पल और यकीन, एक दूजे पर बढ़ता।।
(२८)
डर रहता है कृषक को, फिर ना पड़े अकाल।
आसमान को देख वह, खुद से करे सवाल।।
खुद से करे सवाल, न दिखते काले बादल।
बो पायेगा धान, सोचकर होता पागल।।
अच्छी हो जलवृष्टि, ईश से वह कहता है।
फसल न हो बर्बाद, उसे यह डर रहता है।।
(२९)
मुख से हर मजदूर के, निकले अक्सर आह।
पूरी होती तब यहाँ, दो रोटी की चाह।।
दो रोटी की चाह, खूब है नाच नचाती।
और समय से पूर्व, मौत से भी मिलवाती।।
श्रम साधक तो ‘श्लेष', दूर रहते हर सुख से।
तभी निकलती आह, हमेशा उनके मुख से।।
(३०)
रोटी की खातिर कई, करने पड़े उपाय।
जीवन में श्रमवीर के, लिखा यही अध्याय।।
लिखा यही अध्याय, पीर है निशिदिन सहना।
कष्ट उठाना खूब, खुशी से वंचित रहना।।
लिखी ईश ने ‘श्लेष', बड़ी ही किस्मत खोटी।
श्रम करता जी-तोड़, तभी मिलती है रोटी।।
(३१)
सुनने वाला कौन है, मजदूरों की बात।
बिता रहे क्यों जिंदगी, पीड़ा सह दिन-रात।।
पीड़ा सह दिन-रात, विवश हैं वे जीने को।
मिलता उनको नित्य, अनादर-विष पीने को।।
जब से लटका ‘श्लेष’, कारखानों पर ताला।
उनकी करुण पुकार, कौन है सुनने वाला।।
(३२)
बद से बद्तर आज है, श्रमिक वर्ग का हाल।
बना मुसीबत का सबब, तालाबंदी काल।।
तालाबंदी काल, बढ़ाने मुश्किल आया।
संग रही है डोल, मौत की काली छाया।।
लौट रहें वे गाँव, रात-दिन पैदल चलकर।
श्रमवीरों का आज, हाल है बद से बद्तर।।
(३३)
बच्चा माँ के पास ही, सुख पाता भरपूर।
रहती उसकी जिंदगी, गम से कोसो दूर।।
गम से कोसो दूर, सुखद क्षण है ले जाता।
मिलती खुशी अतीव, खूब है वह इतराता।।
जग में होता ‘श्लेष', प्रेम माता का सच्चा।
रहकर उनके पास, भूलता हर गम बच्चा।।
(३४)
गर्मी में इस बार तो, हुए बहुत मजबूर।
कहीं न जाने दे रहा, कोरोना मगरूर।।
कोरोना मगरूर, महामारी है यारो।
देंगे इसको मात, हौसला मत तुम हारो।।
जंग लड़ेंगे खूब, नहीं बरतेंगे नर्मी।
घर में रहना ठान, बिता देंगे यह गर्मी।।
(३५)
गर्मी की छुट्टी हुई, लेकिन हम मजबूर।
कोरोना कारक बड़ा, खुशियाँ सारी दूर।।
खुशियाँ सारी दूर, लाॅक डाउन ने कर दी।
छीन लिया मुस्कान , दु:ख झोली में भर दी।।
सहते हम लाचार, वायरस की बेशर्मी।
मनवांछित इस बार, कहाँ बीते यह गर्मी।।
(३६)
तकिया बिस्तर मखमली, यह सब नहीं पसंद।
भू पर मिले गरीब को, सोने का आनंद।।
सोने का आनंद, वही सच में लेते है।
रखिए सरल स्वभाव, ज्ञान सबको देते है।।
खुले गगन में श्लेष, दीन की लगती अँखिया।
लेते गहरी नींद, लगाये बिन वे तकिया।।
(३७)
रोटी कपड़े के लिए, खटता है मजदूर।
देने खुशी कुटुंब को, श्रम करता भरपूर।।
श्रम करता भरपूर, देश की शान बढ़ाता।
स्वेद बहाकर खूब, सड़क पुल नहर बनाता।।
छू लेता वह श्लेष, सहज पर्वत की चोटी।
किन्तु उसे हर बार, नहीं मिल पाती रोटी।।
वर्षा आती जब कभी, मिलता अति आनंद।
ऋतु है यह अति पावनी, करते लोग पसंद।।
करते लोग पसंद, खूब हैं लुत्फ उठाते।
मस्ती में सब झूम, गीत सावन के गाते।।
बूँदों की बौछार, सभी को हैं हर्षाती।
सुख देने प्रतिवर्ष, धरा पर वर्षा आती।।
(२३)
पढ़ना लिखना सीखकर, नेक बनूँ इंसान।
ज्ञान दायिनी शारदे, देना तुम वरदान।।
देना तुम वरदान, करूँगा सेवा तेरी।
चलूँ धर्म की राह, रहेगी कोशिश मेरी।।
मातु मुझे हर हाल , भाग्य अपना है गढ़ना।
देना हरदम साथ, मुझे है लिखना पढ़ना।।
(२४)
अच्छी बारिश हो रही, खुश है बहुत किसान।
बोकर अब निश्चिंत है, खेतों में वह धान।।
खेतों में वह धान, उगाता खूब बढ़ाता।
और उपज को बेच, लिए सब कर्ज चुकाता।।
रब से वह हर बार, करे बस यही गुजारिश।।
करना मुझे निहाल, गिरा के अच्छी बारिश।।
(२५)
नेता बड़बोले सभी, करते बस बकवास।
उनसे तो होता नहीं, कार्य कभी कुछ खास।।
कार्य कभी कुछ खास, यहाँ वे कर दिखलाते।
जन से नि: संदेह, सदा ही इज्जत पाते।।
विश्व बैंक से कर्ज, देश अपना कम लेता।
निष्ठापूर्वक कार्य, अगर करते सब नेता।।
(२६)
कैसे हो घर वापसी, चिंता वाली बात।
सोच-सोच मजदूर हैं, व्यथित सभी दिन-रात।।
व्यथित सभी दिन-रात, सहायक कौन बनेगा।
आकर उनके पास, समस्या दूर करेगा।।
पहुँचा दे जो श्लेष, गाँव में जैसे-तैसे।।
किया उन्हें लाचार, महामारी ने कैसे।।
(२७)
बढ़ता दिन-दिन और है, पति-पत्नी का प्यार।
भाव समर्पण का बनें, रिश्ते का आधार।।
रिश्ते का आधार, भरोसे की ताकत है।
कैसा भी हो दौर, न कम होती चाहत है।।
जब तक रहते साथ, प्यार का पारा चढ़ता।
पल-पल और यकीन, एक दूजे पर बढ़ता।।
(२८)
डर रहता है कृषक को, फिर ना पड़े अकाल।
आसमान को देख वह, खुद से करे सवाल।।
खुद से करे सवाल, न दिखते काले बादल।
बो पायेगा धान, सोचकर होता पागल।।
अच्छी हो जलवृष्टि, ईश से वह कहता है।
फसल न हो बर्बाद, उसे यह डर रहता है।।
(२९)
मुख से हर मजदूर के, निकले अक्सर आह।
पूरी होती तब यहाँ, दो रोटी की चाह।।
दो रोटी की चाह, खूब है नाच नचाती।
और समय से पूर्व, मौत से भी मिलवाती।।
श्रम साधक तो ‘श्लेष', दूर रहते हर सुख से।
तभी निकलती आह, हमेशा उनके मुख से।।
(३०)
रोटी की खातिर कई, करने पड़े उपाय।
जीवन में श्रमवीर के, लिखा यही अध्याय।।
लिखा यही अध्याय, पीर है निशिदिन सहना।
कष्ट उठाना खूब, खुशी से वंचित रहना।।
लिखी ईश ने ‘श्लेष', बड़ी ही किस्मत खोटी।
श्रम करता जी-तोड़, तभी मिलती है रोटी।।
(३१)
सुनने वाला कौन है, मजदूरों की बात।
बिता रहे क्यों जिंदगी, पीड़ा सह दिन-रात।।
पीड़ा सह दिन-रात, विवश हैं वे जीने को।
मिलता उनको नित्य, अनादर-विष पीने को।।
जब से लटका ‘श्लेष’, कारखानों पर ताला।
उनकी करुण पुकार, कौन है सुनने वाला।।
(३२)
बद से बद्तर आज है, श्रमिक वर्ग का हाल।
बना मुसीबत का सबब, तालाबंदी काल।।
तालाबंदी काल, बढ़ाने मुश्किल आया।
संग रही है डोल, मौत की काली छाया।।
लौट रहें वे गाँव, रात-दिन पैदल चलकर।
श्रमवीरों का आज, हाल है बद से बद्तर।।
(३३)
बच्चा माँ के पास ही, सुख पाता भरपूर।
रहती उसकी जिंदगी, गम से कोसो दूर।।
गम से कोसो दूर, सुखद क्षण है ले जाता।
मिलती खुशी अतीव, खूब है वह इतराता।।
जग में होता ‘श्लेष', प्रेम माता का सच्चा।
रहकर उनके पास, भूलता हर गम बच्चा।।
(३४)
गर्मी में इस बार तो, हुए बहुत मजबूर।
कहीं न जाने दे रहा, कोरोना मगरूर।।
कोरोना मगरूर, महामारी है यारो।
देंगे इसको मात, हौसला मत तुम हारो।।
जंग लड़ेंगे खूब, नहीं बरतेंगे नर्मी।
घर में रहना ठान, बिता देंगे यह गर्मी।।
(३५)
गर्मी की छुट्टी हुई, लेकिन हम मजबूर।
कोरोना कारक बड़ा, खुशियाँ सारी दूर।।
खुशियाँ सारी दूर, लाॅक डाउन ने कर दी।
छीन लिया मुस्कान , दु:ख झोली में भर दी।।
सहते हम लाचार, वायरस की बेशर्मी।
मनवांछित इस बार, कहाँ बीते यह गर्मी।।
(३६)
तकिया बिस्तर मखमली, यह सब नहीं पसंद।
भू पर मिले गरीब को, सोने का आनंद।।
सोने का आनंद, वही सच में लेते है।
रखिए सरल स्वभाव, ज्ञान सबको देते है।।
खुले गगन में श्लेष, दीन की लगती अँखिया।
लेते गहरी नींद, लगाये बिन वे तकिया।।
(३७)
रोटी कपड़े के लिए, खटता है मजदूर।
देने खुशी कुटुंब को, श्रम करता भरपूर।।
श्रम करता भरपूर, देश की शान बढ़ाता।
स्वेद बहाकर खूब, सड़क पुल नहर बनाता।।
छू लेता वह श्लेष, सहज पर्वत की चोटी।
किन्तु उसे हर बार, नहीं मिल पाती रोटी।।
श्लेष चन्द्राकर
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