विष्णु पद छंद (छत्तीसगढ़ी) - श्लेष चन्द्राकर

*विषय - ध्वनि प्रदूषण*
आनी-बानी के दिनभर सुनथन, अब्बड़ शोर कका।
कर लव येला कमती करके, बूता लाख टका।।

मोटर-गाड़ी मन के बजथे, हारन चौंक करा।
शोर अबड़ ये अलकरहा सुन, जाथे कान भरा।।

शादी अउ छट्ठी मा मनखे, बाजा घात बजा।
अपन पड़ोसी मन ला देथे, फोकट कार सजा।।

कभू शोर गा भारी भरकम, नइ ये कान सहे।
हमर कान ला जतक सुहाथे, ओतक शोर रहे।।
*श्लेष चन्द्राकर*

*आज के अभ्यास- विष्णुपद छंद*
*विषय- महतारी भाखा*
महतारी भाखा ला संगी, दव सनमान बने।
लिखव गीत कविता येमा गा, सुग्घर भाव सने।।

कोनो कांही समझे संगी, झन परवाह करो।
महतारी भाखा मा बोलव, झन गा चिटिक डरो।।

हो विकास छत्तीसगढ़ी के, मन मा सोच रहे।
कभू उपेक्षा के पीरा झन, भाखा नीक सहे।।
*श्लेष चन्द्राकर*

*विषय- महाशिवरात्रि*
परब महाशिवराती के दिन, बिगड़े काम बने।
चारो कोती महा परब ये, सुग्घर घात मने।।

भोलेबाबा के महिमा ले, ये संसार चले।
मंत्र महामृत्युंजय जप लव, संकट काल टले।।

महाकाल के भक्ततन मन बर, दिन ये खास हरे।
नाम जपे ले सच्चा मन ले, शिव डर दूर करे।।

बने महाशिवरात्री के दिन, पुन असनान करो।
बेल पान अउ दूध चढ़ा के, शिव के ध्यान धरो।।
*श्लेष चन्द्राकर*

अनपढ़ता के अँधियार मिटे, अइसे दीप जला।
बूता सुग्घर कर तँय संगी, सबके होय भला।।

भटके मनखे मन ला जग के, सत के राह दिखा।
भेद करे बर सही गलत के, सुग्घर गोठ सिखा।।

दया-मया ले अब दुनिया के, कारोबार चले।
जिनगी मा सबके सुख आये, दुख के साँझ ढले।।

शोषित वंचित मनखे मन मा, तँय हा आस जगा।
संग खड़ा हो उनकर मनके, भय ला दूर भगा।।
*श्लेष चन्द्राकर*

बड़े बिहिनिया जागव सबझिन, तन बर ठीक रथें।
अपनावव गा जे सियान मन, सुग्घर गोठ कथें।।

सुरुज देव ला नमन करव सब, जब असनान करो।
रोज बिहिनिया छाती मा जी, पबरित वायु भरो।।

चढ़हाये बर ईश्वर मा जी, सुग्घर फूल चुनो।
बखरी मा जा चिरई मन के, कलरव नीक सुनो।।

रथे पहटिया के जानव सब, वातावरण बने।
करव सबो जागे के जल्दी, कोशिश थोड़कने।।

बाग बगीचा मा जावव जी, मुँह मा ओस मलो।
तन-मन चंगा रहिथे जानव, बिहिना रोज चलो।।
*श्लेष चन्द्राकर*

जातिवाद के गोठ भुलाके, सब ले प्रेम करो।
देशभक्ति के मनखे मन मा, सुग्घर भाव भरो।।

सदा मया के गंगा जइसे, पबरित धार बहे।
हँसी-खुशी सब मनखे मन हा, खच्चित साथ रहे।।

करव उदिम इतिहास हमर गा, हो झन खून सने।
आने वाला नव पीढ़ी मन, मनखे नेक बने।।

मंदिर-मस्जिद गिरजाघर बर, झन अब लोग लड़े।
जब मुसकुल के बेरा आये, राहय संग खड़े।।

*आज के अभ्यास- विष्णु पद छंद*
*भाग-२*
बैरी मन जे साजिश रचथें, सब नाकाम रहे।
भारत माँ आघू कोनो अब, झन तकलीफ सहे।।

सदा एकता रहय देश मा, अइसे काम करो।
लड़ई झगरा करके येला, झन बदनाम करो।।

रहय हमर पुरखा मन जइसे, सुमता डोर धरे।
सदा देशहित खातिर जेमन, सुग्घर काम करे।।

बैर भुला के उखंँर असन सब, जुरमिल साथ रहो।
मान बढ़ावव भारत माँ के, सब जयहिंद कहो।।
*श्लेष चन्द्राकर*

*विषय- जल*
समझावव ओमन ला जेमन, जल बर्बाद करे।
हर प्राणी के जिनगी के जी, ये आधार हरे।।

जल बाँचय ओ उदिम करव सब, ये हे काम भला।
जीव-जंतु के येकर बिन झन, सूखन देव गला।।

बूँद-बूँद जल के किम्मत हे, बिरथा कार बहे।
संरक्षण येकर करना हे, सबला याद रहे।।

जल बिन मछरी के जइसे गा, झन हो हाल सगा।
जल संवर्धन बर सोचे सब, अइसे भाव जगा।।
*श्लेष चन्द्राकर*

आम आदमी ला लूटत हे, घूसखोर मन गा।
काम-काज बर छोटे-छोटे, लेवत हे धन गा।।

बिना चढ़ावा कहाँ चढ़ाये, होथे काम बने।
गोठ-गोठ मा कुर्सी वाला, साहब घात तने।।

आम आदमी मन हा देखव, रहिथें आज डरे।
दुख पीरा ला उनकर मन के, कमती कोन करे।।

भ्रष्टाचार करइया मन हा, अब्बड़ लेत मजा।
बड़ कठोर ये मन ला संगी, दे सरकार सजा।।
*श्लेष चन्द्राकर*

*विषय- सत*
संत महात्मा ज्ञानी मन हा, सुग्घर गोठ कथे।
सत के आघू सदा असत हा, जानव हार जथे।।

गलत लबारी के रद्दा हे, झन अपनाव कभू।
चलना सत के रद्दा मा हे, झन बिसराव कभू।।

भले लागथे जम्मो झन ला, सत के गोठ करू।
फेर इही हा करथे जानव, मन के बोझ हरू।।

सत के ताकत ला पहिचानव, येकर साथ रहो।
ताल ठोक के कहूँ जघा हो, सत के गोठ कहो।।
*श्लेष चन्द्राकर*

*विषय - बसंत ऋतु*
ऋतु बसंत मा बने नजारा, देखे बर मिलथे।
फूल नीक बड़ रंग-बिरंगा, ये घानी खिलथे।।

पेड़ मउरथे आमा के जी, ममहाथे भुँइया।
बड़ हावा पबरित बोहाथे, जे भाथे गुँइया।।

पिंवरा चुनरी ओढ़े भुँइया, सुग्घर घात लगे।
देख नजारा अच्छा दिन के, सब मा आस जगे।।

नवा नवरिया पंच तत्व हा, मन मा जोश भरे।
सुख मनखे ला बड़ देवइया, ऋतु मधुमास हरे।।
*श्लेष चन्द्राकर*

ऋतु बसंत ला जग वाला मन, ऋतु राजा कहिथें।
भुला जथें जाड़ा के दुख ला, खुश येमा रहिथें।।

पाना झरथे रुखराई के, आथे पात नवा।
सुरुज किरण हा अबड़ सुहाथे, बहथे वात नवा।।

बने फूल परसा के खिलथे, लगथे सुग्घर गा।
फसल जवां सरसों के करथे, भुँइया उज्जर गा।।

घात फूल मन मा मंँड़राथे, तितली अउ भँवरा।
हरा-भरा घर-घर मा दिखथे, तुलसी के चँवरा।।

कूक कोयली के सुनथन सब, बखरी जंगल मा।
ऋतु बसंत मा हमर गुजरथे, जिनगी मंगल मा।।
*श्लेष चन्द्राकर*

Comments

Popular posts from this blog

मनहरण घनाक्षरी (छत्तीसगढ़ी) - श्लेष चन्द्राकर

छत्तीसगढ़ी दोहे - श्लेष चन्द्राकर

मंदारमाला सवैया (छत्तीसगढ़ी)- श्लेष चन्द्राकर