सोभन छंद (छत्तीसगढ़ी) - श्लेष चन्द्राकर

सोभन छंद
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विषय- लक्ष्मण मस्तूरिया
गीत मा मस्तूरिया के, सत रहय हर गोठ।
लोक-गीतन ला बनाइन, राज के बड़ पोठ।।
खेतिहर मजदूर मन के, जेन समझय पीर।
चाह राखय उँन सबो के, बन सकय तकदीर।।

गीत मा त्यौहार मन के, गोठ रहय समाय।
जे सुनइया लोग मन ला, सत म अबड़ सुहाय।।
राज के मस्तूरिया हा, रहिन जन कवि एक।
मनुख ला संदेश देवत, लिखिन गीत कतेक।।

गीत मन मस्तूरिया के, हें सबो बड़ खास।
सुनइया मन मा जगाथें, आस अउ बिश्वास।।
गोठ भुँइया के हवय गा, गीत मा हर जान।
लोकगायक के बनाथे, जे अलग पहिचान।।

विषय - करम
छोड़ के आलसपना ला, करव सुग्घर काम।
जेन मेहनती रथे गा, उन कमावत नाम।।
बखत बिरथा झन गँवाये, गोठ राखव ध्यान
नेक मनखे के बनाथे, करम हा पहिचान।।

विषय - का लिखवँ
का लिखवँ सूझत नहीं हे, आज सोभन छंद।
लागथे अइसे मगज के, द्वार हावय बंद।।
सोचथव ता मुड़ पिराथे, का करव भगवान।
बन जतिस दू डाँड़ सुग्घर, बस इहीं अरमान।।

विषय - पर्यावरण
बाँचही पर्यावरण ता, बाँचबो सब लोग।
ये बचाये बर सबोझन, दव अपन सहयोग।।
पेड़ पौधा बड़ लगावव, जल बचा लव ठान।
सब डहर ला स्वच्छ राखव, छेड़ के अभियान।।

चोट गा पर्यावरण ला, झन अबड़ पहुँचाव।
जे भरे मा होय मुसकुल, दव न अइसन घाव।।
पोसथे लइका बरोबर, इखँर राखव लाज।
फेर पहिली कस दिखय ये, कर दिखावव काज।।

झन करव पर्यावरण ला, आपमन बदरंग।
बन नदी मन ला बचावव, हे इखँर सब अंग।
पेड़ पौधा देत रहिथें, गोंद अउ फर फूल।
ये सबो ला काटना हे, जान लेवव भूल।

एक रुख तँय काटथस ता, दस लगाहूँ ठान।
सोच गा पर्यावरण के, होय झन नुकसान।।
इखँर बिन पानी गिरय नइ, गोठ ला रख याद।
बाग के रुख ला बढ़ा तँय, डार के जल खाद।।

परत मा ओजोन के गा, छेद फैलत जात।
ताप भुँइया के बढ़त हे, रोजकुन बड़ घात।।
लात विकिरण आज येकर, चाम केंसर रोग।
फेर भी पर्यावरण ला, करत दूषित लोग।।

कारखाना के धुआँ ले, होत दूषित वायु।
येकरे सेती मनुख के, घटत हावय आयु।।
फेर भी चेतत कहाँ हे, गंदगी बगरात।
कार भूलत हे प्रलय के, होत हे शुरुवात।।

सोच ले पर्यावरण बर, हे जरूरत आज।
होत हे दूषित अबड़ नित, राख येकर लाज।।
काट झन तँय पेड़ पौधा, अउ बचा जल धार।
शुद्ध हावा ला करे बर, कर इखँर उपचार।।

बाँचही पर्यावरण ता, बाँचबे तँय जान।
होत कइसे ये प्रदूषित, कर इखँर पहिचान।।
ठान ले येला सजाना, नीक तँय कर काम।
फेर पहिली कस धरा हा, बन जही सुर धाम।।

विषय - कबीर दास
गोठ सत बोलय सदा गा, संत दास कबीर।
एक उनकर बर रिहिस हे, सब गरीब-अमीर।।
काखरो जब पीर देखय, बड़ दुखी उन होय।
देख जग पाखंड ला बड़, उखँर कवि मन रोय।।

शिष्य रामानंद जी के, रिहिस दास कबीर।
ज्ञान के बड़ गोठ सीखिन, ओ बइठ गुरु तीर।।
नेक नीमा नीरु पुत हा, बनिस संत महान।
अउ बनाइन ये जगत मा, उन अलग पहिचान।।

बड़ दिखावा अउ अधम के, करिन संत विरोध।
सब मनुख मन ला कराइन, सत्य के उन बोध।।
लिखिस हे साखी रमैनी, सबद बीजक ग्रंथ।
आज मनखे मन चलत हे, उन बताये पंथ।।

छंद लिख संदेश दिस हे, संत हा बड़ नीक।
सब मनुख मन ला कहिन हे, काम छोड़व खीक।।
सब दिखावव गा मनुजता, नेक कर लव काम।
जे तुहँर अंतस बसे हे, दिख जही प्रभु राम।।

विषय - जानवर
जानवर मन हा अबड़ गा, होत रोज शिकार।
ध्यान जिम्मेदार मन हा, देत हे नइ कार।।
मार के वनजीव मन ला, खात मानव आज।
खीक हरकत ले अपन जी, आत हे नइ बाज।।

विषय - किसनहा
बड़ सहत घाटा किसनहा, बो अपन अब खेत।
कर्ज के बड़ बोझ ले गा, खोत हावय चेत।।
साथ मौसम देत नइ हे, छल करत हर बार।
हाल ला उनकर सुधारे, ध्यान दय सरकार।।

जानवर रौंदत फसल ला, होत बड़ नुकसान।
अबड़कन पइसा लगा के, पात हे कम धान।।
का करय अब गा किसनहा, सोचथे दिन रात।
कोन हावय जी सुनइया, आज उनकर बात।।

विषय - जल
भूल बड़ काबर करत हव, जल ल कर बरबाद।
घात रोहू एक दिन गा, भूल येकर याद।।
जल बिना अब्बड़ तड़पहू, जान लव सत बात।
चेत जावव जल बचावव, खुश रहू दिन-रात।।

भूल भारी बड़ करत हव, जल ल कर बरबाद।
घात रोहू एक दिन गा, भूल ला कर याद।।
जल बिना अब्बड़ तड़पहू, जान लव सब आप।
चेत जावव फेन नइ ते, भोगहू अभिशाप।।

जल बचाबे ता रही कल, गोठ ये तयँ मान।
काम येकर बर करत रा, छेड़के अभियान।।
जान ले हर बूँद जल के, होत हे अनमोल।
झन बहा बिरथा कभू तयँ, खर्च करबे तोल।।

विषय - गर्मी
घाम हा अब्बड़ जनावत, चलत हावा तात।
देह ले रहि-रहि पछीना, रात-दिन चुचवात।।
बाढ़ गे गरमी नँगत गा, जीव हे हलकान।
तन जुड़ाये बर करत सब, दू दफा असनान।।

घात गरमी बाढ़हे ले, हे सबो परसान।
राखना सब ला पड़त हे, देह के बड़ ध्यान।।
तात हावा ले बचेबर, घर म राहत लोग।
कुलर एसी के अबड़ गा,करत हे उपयोग।।

लू धरे के डर हवय गा, हे हवा बड़ तात।
नौ तपा मा खोर जा झन, मान ले तँय बात।।
पी निमउ शरबत बना के, रोज बिहना शाम।
देह ला तँय रख बचाके, तेज हावय घाम।।

विषय - स्वार्थ
काकरो बर सोचईया, हे इहाँ अब कोन।
देखथे खुद के भला गा, अब सबो सिरतोन।।
दूसरा बर जे जियइया, लोग हे कम आज।
लूटथे जे दीन मन ला, आज उनकर राज।।

विषय - मजदूर/बनिहार
गोठ सत मजदूर हा जी, आज अब्बड़ रोत।
नाँव ले ओकर इहाँ गा, बस सियासत होत।।
संग मा नेता मन सबो बस, चित्र हे खिंचवात।
फेर कोनो हे कहाँ जे, सुनय ओकर बात।।

घात दुख पीरा सहत हे, जगत मा बनिहार।
आज जिनगी मा उखँर गा, अबड़ हे अँधियार।।
हाल ला ओकर पूछईया, आज हावय कोन।
आय मुसकुल दौर मा जे, साथ दे सिरतोन।।

घात मुसकुल आजकल गा, हे सहत मजदूर।
होत नइ घर वापसी अउ, गाँव हावय दूर।।
ट्रेन बस मन हा चलत हे, फैलथे अफवाह।
लोग मन लेवत मजा हे, टोर उनकर चाह।।

श्लेष चन्द्राकर,
खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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