त्रिभंगी छंद (छत्तीसगढ़ी) - श्लेष चन्द्राकर

त्रिभंगी छंद
(१)
भुँइया हरियागे, सावन आगे, सब तरिया हें, घात भरे।
नरवा दउड़त हे, नहर चलत हे, मुसकुल होवत, पार करे।।
नव पाना आवत, रुख हरियावत, फूल खिलत सब, नीक लगे।
श्रृंगार करे नव, रूप धरे नव, ये भुँइया के, भाग जगे।
(२)
दिन पावन आगे, सावन आगे, शंकर जी के, ध्यान धरौ।
जल ले नउँहाके, फूल चढ़ाके, सुग्घर मंतर, जाप करौ।।
शिव भक्तन जन बर, संतन मन बर, येहर सुग्घर, मास हरे।
बाबा कैलाशी, हे अविनाशी, आस सबो के, पूर्ण करे।।
(३)
गुरु ज्ञान बँटइया, राह दिखइया, ये भुँइया के, देव हरे।
सब शिष्यन मन बर, अउ जन-जन बर, काम सदा जे, नीक करे।।
नव राष्ट्र गढ़इया, धरम सिखइया, महा पुरुष के, गोठ सुनौ।
गुरुदेव सिखाथे, जे बतलाथे, ओ सब ला जी, आप गुनौ।
(४)
बंदूक चला झन, खून बहा झन, मानवता बर, सोच सदा।
आतंक मचाथे, खून बहाथे, ओ सब मन ला, दाम पदा।।
तँय हितवा बनके, लोगन मनके, देखभाल कर, नाम कमा।
सत राह चलत रा, करम करत रा, नेक मनुख बन, धाक जमा।।
(५)
दिन-रात कमाथँव, स्वेद बहाथँव, भूख मिटाथे, मोर तभे।
परिवार चलत हे, चूल जलत हे, मिलत हवय गा, काम जभे।।
कमती सुविधा मा, मँय दुविधा मा, मनुख जियइया, एक हरौं।
सब दु:ख दरद ला, मोर मरज ला , कोन इहाँ जे, दूर करौ।।
(६)
हन एक कहव जी, साथ रहव जी, देश धरम बर, नीक रही।
सत राह चलव गा, नेक बनव गा, मान सबो लव, गोठ सही।।
अब छोड़व झगरा, राहव सँघरा, बैर भुलाके, काम करौ।
हर भटके जन मा, लोगन मन मा, देश मया के, भाव भरौ।।
(७)
छल कपट करइया, चाल चलइया, देश अबड़ गा, चीन हरे।
जे जाल बिछाये, रोज सताये, घात गलत जी, काम करे।।
नित भूल धरम ला, तोड़ नियम ला, देत हवय गा, रोज दगा।
हम जान डरे हन, मान डरे हन, हमर नहीं ओ, होय सगा।।
(८)
झन रार मचावव, बैर भुलावव, रहव बने गा, गोठ सुनो।
सत दया धरम के, नेक करम के, आप सबो झन, राह चुनो।।
अब भेद मिटावव, प्रेम लुटावव, अपन वतन बर, एक रहौ।
जय हिंद कहइया, इँहा रहइया, हरय सबो के, देश कहौ।।

पानी बरसत हे, खेत भरत हे, हरय कृषक बर, बात बने।
घर रोज आत गा, फींज घात गा, अपन खेत ले, कीच सने।।
जल बहत धार ला, खेत खार ला, रोज देखथे, मेंड़ चढ़े।
ओ खाद छिंचत हे, बंद खिंचत हे, सोच उखँर जी, धान बढ़े।।
(९)
बड़ सुबह उठव जी, बाग घुमव जी, शुद्ध हवा मा, साँस भरौ।
तन स्वस्थ बनाथे, रोग मिटाथे, सुनव बिहनिया, योग करौ।।
कुछु देर चलव सब, योग करव सब, रोग देह ले, दूर रथे
मन ठीक रथे गा, लोग कथे गा, करत बने हस, गोठ कथे।।
(१०)
रोपव गा पौधा, पेड़ बढ़ावव, बाग सजावव, ठीक रही।
लोगन हा हावा, छाँव मिले ले, फूल खिले ले, वाह कही।।
बड़ सुग्घर लगथे, साल सिसम के, किसम किसम के, पेड़ तने।।
जंगल-झाड़ी ला, सोच बचाना, घात बढ़ाना, काम बने।।
(११)
जग मा आये हस, देह मनुख धर, करत सदा रह, काम सही।
तब देहीं इज्जत, लोग इहाँ सब, तोर अमर गा, नाम रही।।
अपने हित ला जी, छोड़ देखना, सोच सबो बर, नीक सगा।
जेमन जिनगी ले, हवय दुखी बड़, उखँर हृदय मा, आस जगा।।

श्लेष चन्द्राकर,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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