कामरूप छंद (छत्तीसगढ़ी)- श्लेष चन्द्राकर
कामरूप छंद
(१)
माँ-बाप गुरुजन, हरे भगवन, उखँर कर सम्मान।
जब कथे उँन मन, तँय बने बन, बना गा पहिचान।।
सुन गोठ उनकर, रथे सुग्घर, तोर आही काम।
रह गोठ म अटल, बने पथ चल, बढ़ा उनकर नाम।
(२)
दू दिन रथे धन, गरब कर झन, लोभ दे तँय छोड़।
सबले दया के, अउ मया के, नता जग मा जोड़।।
सब मोह तज के, राम भज के, बने कर तँय काम।
जन के मदद कर, जी उखँर बर, तभे मिलही राम।।
(३)
छल कपट कर झन, नेक तँय बन, सबो के आ काम।
बड़ शान ले तब, जगत मा सब, तोर लेही नाम।।
जी देश हित बर, सदा सुग्घर, अपन तज के स्वार्थ।
मनखे बने बन, लगा के मन, करत रा परमार्थ।।
(४)
जल ला बचाबे, झन बहाबे, मान ले तँय बात।
बिरथा बहाबे, ता उठाबे, परेशानी घात।।
सुन बहत जल के, भूमि तल के, बूँद हर अनमोल।
जल बहत रोकव, तोल खरचव, मनुख मन ला बोल।।
(५)
रितु खास सावन, हरय पावन, उठा गा आनंद।
येकर विषय मा, मीत लय मा, नीक लिख तँय छंद।।
कर बने वर्णन, सुने जे मन, कहें सुग्घर गीत।
कवि बने बन के, सबो झन के, जीत ले मन मीत।
(६)
परिणाम ला डर, गरब झन कर, मिटा जाबे जान।
कहथें गुणी जन, जी बने बन, गोठ उनकर मान।।
तन हरे नश्वर, भूल झन कर, गरब दे तँय छोड़।
सब मनुख ले गा, मया के गा, नता ले तँय जोड़।।
(७)
आगे हरेली, परब पहिली, राज के गा जान।
गेंड़ी बनाके, बने चढ़ के, मना सुग्घर ठान।।
संगवारी मन, सबो बन ठन, बाट जोहत तोर।
गेंड़ी मचे बर, जा घुमे बर, मचावत सब शोर।।
(८)
दुख घात देवत, प्रान लेवत, आज कोविड रोग।
गँवई शहर के, रहत डर के, इहाँ जम्मो लोग।।
धंधा चलइया, नित कमइया, सहत हे नुकसान।
ये रोग भागय, खुशी लहुटय, करव कुछु भगवान।।
श्लेष चन्द्राकर,
पता:- खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, वार्ड नं.- 27,
महासमुन्द (छत्तीसगढ़) पिन - 493445,
मो.नं. 9926744445
(१)
माँ-बाप गुरुजन, हरे भगवन, उखँर कर सम्मान।
जब कथे उँन मन, तँय बने बन, बना गा पहिचान।।
सुन गोठ उनकर, रथे सुग्घर, तोर आही काम।
रह गोठ म अटल, बने पथ चल, बढ़ा उनकर नाम।
(२)
दू दिन रथे धन, गरब कर झन, लोभ दे तँय छोड़।
सबले दया के, अउ मया के, नता जग मा जोड़।।
सब मोह तज के, राम भज के, बने कर तँय काम।
जन के मदद कर, जी उखँर बर, तभे मिलही राम।।
(३)
छल कपट कर झन, नेक तँय बन, सबो के आ काम।
बड़ शान ले तब, जगत मा सब, तोर लेही नाम।।
जी देश हित बर, सदा सुग्घर, अपन तज के स्वार्थ।
मनखे बने बन, लगा के मन, करत रा परमार्थ।।
(४)
जल ला बचाबे, झन बहाबे, मान ले तँय बात।
बिरथा बहाबे, ता उठाबे, परेशानी घात।।
सुन बहत जल के, भूमि तल के, बूँद हर अनमोल।
जल बहत रोकव, तोल खरचव, मनुख मन ला बोल।।
(५)
रितु खास सावन, हरय पावन, उठा गा आनंद।
येकर विषय मा, मीत लय मा, नीक लिख तँय छंद।।
कर बने वर्णन, सुने जे मन, कहें सुग्घर गीत।
कवि बने बन के, सबो झन के, जीत ले मन मीत।
(६)
परिणाम ला डर, गरब झन कर, मिटा जाबे जान।
कहथें गुणी जन, जी बने बन, गोठ उनकर मान।।
तन हरे नश्वर, भूल झन कर, गरब दे तँय छोड़।
सब मनुख ले गा, मया के गा, नता ले तँय जोड़।।
(७)
आगे हरेली, परब पहिली, राज के गा जान।
गेंड़ी बनाके, बने चढ़ के, मना सुग्घर ठान।।
संगवारी मन, सबो बन ठन, बाट जोहत तोर।
गेंड़ी मचे बर, जा घुमे बर, मचावत सब शोर।।
(८)
दुख घात देवत, प्रान लेवत, आज कोविड रोग।
गँवई शहर के, रहत डर के, इहाँ जम्मो लोग।।
धंधा चलइया, नित कमइया, सहत हे नुकसान।
ये रोग भागय, खुशी लहुटय, करव कुछु भगवान।।
श्लेष चन्द्राकर,
पता:- खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, वार्ड नं.- 27,
महासमुन्द (छत्तीसगढ़) पिन - 493445,
मो.नं. 9926744445
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