बागीस्वरी सवैया (छत्तीसगढ़ी)- श्लेष चन्द्राकर

 बागीस्वरी सवैया

(1)
नहीं काटहू फालतू गा बने पेड़-पौधा रहे ले सुहाथे धरा।
बने पेड़-पौधा लगाके रखौ गा धरा के सबो कोत ला जी हरा।
इही पेड़-पौधा इहाँ शुद्ध हावा सदा भेजथे आदमी के करा।
करौ यत्न ओ जी लगाके रहे गा धरा ये हमेशा हरा औ भरा।
(2)
रहौ नेक इंसान जैसे इहाँ कर्म संसार मा रोज अच्छा करौ।
सजा पाप के झेलहू खीक बूता करे पूर्व गा देवता ले डरौ।
जलाना हवै ज्ञान के दीप ला तेल डारो बने और बाती बरौ।
लुटाओ खुशी गा लुटाऔ मया जी रिता दीन के आप झोला भरौ।
(3)
मया प्रेम सेती कभू गाँव के जी सही बात माहौल अच्छा रहे।
उहाँ प्यार ले गा कका और काकी बबा और दाई मया मा कहे।
सबो लोग चंगा रहे गाँव के जी उहाँ दूध के रोज गंगा बहे।
बनाये रहे देह ला लोग ऐसे बने ढंग ले घाम जाड़ा सहे।
(4)
रहे घास के खूब मैदान आघू सबो गाँव मा गा मवेशी चरे घास जी।
रहे गाय-बैला रहे भैंस-भैंसी बने गा सबो लोग के पास जी।
मजा मा रहे लोग ऊहाँ सबो के इहाँ दूध घी होय गा खास जी।।
रहे गा सबो के इहाँ खाद देशी बने धान होही रहे आस जी।
(5)
इहाँ एक सप्ताह चारों मुड़ा गा रथे घात आनंद उल्लास हे।
इहाँ दीप त्यौहार ले गा सबो आदमी के जुड़े आस विश्वास हे।
जमाना घलो मानथे गा सबो पर्व ले नीक दीपावली खास हे।
मनाथे बने ढंग ले पर्व जम्मो रथे गा खुशी के इहाँ वास हे।
(6)
अँधेरा घना घात अज्ञान के हे मिटाना हवै दीप ला बार के।
उजाला इहाँ लानबे नीक उद्देश्य हे जान ले दीप त्यौहार के।
सबो लोग ला प्यार तै दे नहीं जिंदगी हा चले गा बिना प्यार के।
सदा सोच ते हा स्वयं ला बनाना हवै नेक इंसान संसार के।

श्लेष चन्द्राकर,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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