मदिरा सवैया (छत्तीसगढ़ी)- श्लेष चन्द्राकर

 मदिरा सवैया

(1)
बिक्कट पेड़ ल काटत हावँय देखव लोगन आज इहाँ।
येकर ले वन क्षेत्र घला अब होवत चातर राज इहाँ।
पेड़ लगावव येकर ले सकथे बड़ लाभ समाज इहाँ।
जंगल हा उजडें झन गा कर लौ बड़ सुग्घर काज इहाँ।
(2)
मारग मा सत के चलबे तब गा मिलही बड़ मान‌ सगा।
झूठ इहाँ‌ कहिथे कम इज्जत होवत ओकर जान सगा।
लोभ सुवारथ जे तज थे बनथे उन के पहिचान सगा।
काम बने दुनिया बर हे करना रखबे तँय ध्यान सगा।
(3)
दीनन के दुख दर्द रहे अइसे कविता अउ छंद लिखौ।
लोगन ला बड़ सुग्घर लागय आवव भाव पसंद लिखौ।
भाव नहीं कउनो समझे अइसे झन लंदरफंद लिखौ।
गोठ करू चिटको झन लागय राहय जे गुलकंद लिखौ।
(4)
जीयव साहस ले सत गोठ कहे बर छोड़व गा डरना।
जानव ताकत ला खुद के तज दौ अँगना खँचवा करना।
जीवन के दिन चार हवै जग मा सबला पड़थें मरना।
छोड़व छाप इहाँ खुद के दिल सीखव गा सबके हरना।
(5)
काबर गा मजदूरन ला पड़थें तकलीफ बड़ा सहना।
काबर पड़थे जग मा उँन ला अँइठे अँइठे रहना।
रोज इहाँ अनियाव करा पड़थें उँन लोगन ला लहना।
झेलत हें दुख बिक्कट जी मिलही कब गा सुख के गहना।
(6)
देखव लोगन भूलत हावँय गा सत के पथ मा चलना।
सीखत हावय गा सिधवा मनखे मन ला अब तो छलना।
उन्नति दूसर के नइ देख सकें बस जानत हें जलना।
दूसर के धन-दौलत मा अब सीखत हावँय गा पलना।
(7)
खीक बनावत हे परिवेश नहीं कचरा बगरावव जी।
साफ रखौ हर खोर गली अउ सुग्घर गाँव बनावव जी।
लोग निरोग रहे सब काज बने कर एक दिखाावव जी।
देखइया खुश होय बड़ा बदलाव बने अब लावव जी।
(8)
आवत हे रितु नीक बसंत बने भुँइया हर लागत हे।
सूरज ताप बढ़ावत हे जुड़ देखव गा अब भागत हे।
अंतस मा मनखे मन के सुख भाव बने अब जागत हे।
देर करौ झन दौड़त आवव हे रितुराज सुवागत हे।
(9)
लालच मा मनखे पड़थे तब ओहर पाप बड़ा करथे।
दंड इहाँ मिलथे जब ओकर पाप घड़ा बहुते भरथे।
सोवत जागत पाप करे हँव याद तहाँ करके डरथे।
रोवत-रोवत सोचत-सोचत हे सत गोठ इहाँ मरथे।

श्लेष चन्द्राकर,
खैरा बाड़ा, गुड़रु पारा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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